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साक्षरता दिवस : खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्क लिए,सवाल ये है, किताबो ने क्या दिया मुझको….

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]होमेंद्र देशमुख[/mkd_highlight]
बात साक्षरता के बहाने शिक्षा के महत्व बताने की है । जब हम पढ़े लिखे कुछ लोग यह शब्द ‘ साक्षरता ‘ कहते हैं तब साथ मे हमे अपने ऊपर फक्र और कुछ गरीब आदिवासी पिछड़े आदि लोगों पर दया या रहम या भीख जैसी भावना आती है । पर असल असाक्षर हम जैसे ही लोग हैं ,जो अक्सर ऐसा सोच लेते हैं कि यह गरीबों भिखमंगों के लिए सरकार की एक और योजना है ।
दरअसल हम और आप जैसे कुछ लोग दो चार शब्द पढ़लिख लिए हैं क्योंकि हमारे बुजुर्गों ने पढ़ाई के महत्व को सही समय पर पहचाना । जो उस समय नही समझ पाए उन्ही लोगों को आज समझाने की मुहिम है साक्षरता ..!
1980 के आसपास प्रौढ़ शिक्षा का दौर चल रहा था । मेरे पिताजी गांव के सरपंच थे तो प्रौढ़ शिक्षा की क्लास हमारे दालान में लगती थी । नौकर चाकर और उनके परिजन तो पिताजी के दबाव में शाम कुछ देर के लिए इस कक्षा में आ जाते थे लेकिन बाकी ग्रामीणों को शाम की इस कक्षा में लाना बहुत मुश्किल होता था ।  मेरी मेट्रिक पास बड़ी भाभी इनकी शिक्षिका थीं  जो  उस समय ग्रामीण परिवेश में बड़ी बात थी । इस काम के लिए उन्हें मात्र पिछत्तर रुपये महीने के मिलते थे । उस कक्षा में शायद बमुश्किल 25 लोगों   ने नाम लिखवाया था , जिसमे से पंद्रह सोलह महिलाएं थीं ।
वो कहते – “ये कोई हमारी उमर है स्कूल में पढ़ने की..?” 
शाम की इस कक्षा में जाकर पढ़ाई करना उनके लिए अशिक्षित रहने से ज्यादा शर्म की बात लगती थी । शिक्षिका के लिए उनको पढ़ाने से ज्यादा उन्हें पढ़ने के लिए मनाना बड़ी चुनौती थी ।
अंततः कुछ ही सालों बाद साक्षरता मिशन के आते ही शाम की यह कक्षा बंद हो गई ।
ऐसे अभियानों का असर इस तरह नही दिखता कि जैसे आषाढ़ में धान लगाया और कार्तिक के महीने में फसल आ गई ।
यह अभियान या मिशन के बीज ‘ मन ‘ पर बोए जाते हैं । मानसिकता की खेती पल्लवित होती है ।
और फल अगली पीढ़ी तक आ जाए तब भी यकीनन बड़ी बात होती है । ऐसे मिशनों अभियानों की फसलें सरकारी कागजों और अखबारों में भले दिखा दिया जाए पर ,अनपढ़ के मस्तिष्क में शिक्षा का सही बीजारोपण हो गया तो उसकी आने वाली पीढियों को केवल फसलें ही फसलें मिलती हैं ।
आप और हम कुछ इसी तरह से शिक्षित हुए कौम की फसलें हैं । न उससे ऊपर न उससे नीचे..!
यकीन नही होता तो महाराष्ट्र के नंदूरबार जिले में साकरी तालुका के समोदा गांव के बाहर झोपड़ी में रहने वाली विधवा भील आदिवासी मां ने गरीबी में महुआ से शराब बनाने का काम किया और उसी  “माई” ने शराबियों के लिए चखना का इंतजाम करने वाले अपने बेटे को न केवल डॉक्टर बनाया बल्कि कलेक्टर डॉ राजेन्द्र भरुद ,भी बनाया । कभी हो सके तो इस भील आदिवासी मां (चित्र) की कहानी जरूर पढ़ियेगा ।
 सोच पर चोट मारता नजीर बाक़री का यह शेर आज फिर अपना सवाल और सवाल में जवाब  दोहराता दिखता है कि-
खड़ा हूँ आज भी रोटी के चार हर्क लिए
सवाल ये है, किताबो ने क्या दिया मुझको ।
विश्व साक्षरता दिवस पर ..
आज बस इतना ही..!

                                 ( लेखक वरिष्ठ विडियो जर्नलिस्ट है )

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