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वैज्ञानिक युग में ग्रहण ज्ञान पर राहु-केतु का ग्रहण क्यों ?

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]सारिका घारू[/mkd_highlight]

 

रविवार को दिखने जा रहें वलयाकार सूर्यग्रहण की खगोलीय घटना के साथ ही प्राचीन काल से चले आ रहे अनेक मिथक पुनः प्रकट होते दिख रहे हैं। कभी न समाप्त होने की धारणा वाले राहु और केतु का भ्रम भी इसमें शामिल है। मान्यताओं में राहु द्वारा सूर्य या चंद्रमा को निगल लेने तथा उसकी कटी हुई गर्दन से निकल जाना बताया जाता है।
सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा के एक सीध में आ जाने से होने वाली इस खगोलीय घटना में राहु और केतु कोई राक्षस नहीं हैं बल्कि ये वो दो काल्पनिक बिंदु है जो चंद्रमा की कक्षा और आकाष में सूर्य के मार्ग का कटन बिंदु है।

पृथ्वी के चारों ओर परिक्रमा करते चंद्रमा की कक्षा आकाश में सूर्य के मार्ग से 5 डिग्री पर झुकी हुई है। ये दोनो कक्षायें दो बिन्दुओं पर कटती हैं जिन्हें नोड कहा जाता है। इन बिन्दुओं को आरोही नोड और अवरोही नोड कहते हैं। मान्यताओं में इन्हें राहु अर्थात चंद्रमा का उत्तर तरफ जाना और केतु अर्थात चंद्रमा का दक्षिण तरफ जाना कहा जाता हैं। ग्रहण तब ही होता है जब चंद्रमा किसी एक नोड पर या इसके करीब हो। तो राहु और केतु राक्षस नहीं काल्पनिक बिन्दु हैं।

भारत में 500 ईसवी में आर्यभट्ट ने सबसे पहले राहु और केतु के मिथकों को नकारते हुये अपने शोध आर्यभट्टीयम के ‘गोला’ नामक अंतिम खंड में यह उल्लेख किया है कि चंद्र और ग्रह सूर्य के परावर्तित प्रकाश के कारण दिखाई देते हैं और किसी आकाशीय वस्तु की छाया किसी दूसरे पिंड पर पड़ने से ग्रहण होते हैं। तो आज 2020 में भी राहू और केतु को ग्रहण की खगोलीय घटना के लिये जिंदा रखना विज्ञान के इस युग में उचित नहीं है।

                  ( लेखिका नेशनल अवार्ड प्राप्त विज्ञान प्रसारक है )

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