शोध के क्षेत्र में “स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण” देश के विकास के लिए होगा कारगर
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]डॉ.लाल चंद्र विश्वकर्मा / संजीव कुमार भूकेश [/mkd_highlight]
अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, नॉर्वे, स्वीडन, डेनमार्क जापान , ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि तमाम विकसित राष्ट्र ऐसे हैं जो कि आज हर गरीब और विकासशील देश के लिए एक पैमाना बन चुके हैं! आर्थिक विकास की इस मैराथन में हर देश प्रतिस्पर्धा कर रहा है और विजयी होना चाहता है! किसी भी देश के आर्थिक विकास और राष्ट्र निर्माण में शोध का स्थान बहुत महत्वपूर्ण है, जिन विकसित देशों का हमने जिक्र किया है, हमें इनके अतीत में देखना होगा कि उन्होंने अपने देश में शोध के लिए बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर और संसाधनों पर जीडीपी का एक महत्वपूर्ण भाग समय दर समय खर्च किया और शोध के लिए बेहतर माहौल बनाया! अमेरिका जीडीपी 3.17%, चीन 2.19% और भारत 0.85 प्रतिशत खर्च करते हैं, लेकिन अंतर यह है कि अमेरिका की जीडीपी 21 ट्रिलियन डॉलर, चीन की 14 ट्रिलियन डॉलर और भारत की लगभग 2.9 ट्रिलियन डॉलर की है, अर्थात भारत शोध पर नाम मात्र के लिए खर्च करता है!
बात चाहे प्रयोगशाला के निर्माण की हो, उनमें आवश्यक उपकरण और रसायनों की हो या मेहनतकश और योग्य वैज्ञानिकों व प्रोफेसरों की नियुक्ति हो, इन सभी राष्ट्रों ने शोध के महत्व को समझते हुए न केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के शोध को महत्व दिया, अपितु सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र के विषयों पर शोध को भी बराबर महत्व दिया! यही कारण है कि पूरा विश्व मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट, रॉयल सोसायटी लंदन के अतिरिक्त स्टॉकहोम पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों की क्षमता और उनके शोध कार्य का लोहा मान रहे हैं! इन राष्ट्रों ने जीडीपी के आकार बढ़ने के साथ-साथ शोध पर भी निरंतर खर्च किया और शोध के लिए आवश्यक माहौल तैयार किया! जिसमें कि तकनीकी कौशल के अतिरिक्त सॉफ्ट स्किल्स, नैतिकता, निरपेक्षता, सद्भाव, निष्पक्षता अनुशासन जैसे गुणों को विकसित करने पर भी ध्यान दिया गया अर्थात शोधार्थियों और प्रोफेसरों में किसी भी प्रकार का भेद जाति, धर्म, संप्रदाय, लिंग रंग भाषा क्षेत्र आदि के आधार पर ना हो और एक गुणवत्ता युक्त स्वच्छ मानसिकता वाला मानव संसाधन तैयार हो, क्योंकि किसी राष्ट्र का निर्माण रातों-रात अचानक से नहीं होता है, इसके लिए निरंतर शारीरिक व मानसिक श्रम की अवश्यकता होती है। शोध संस्थाओं का मुख्य कार्य शोधार्थियों में वैज्ञानिक सोच का विकास करना होता है। यह तभी संभव हो सकता है जब संस्थानों में अनुसन्धान के साथ-साथ शोधार्थियों में मानव संबंधों को बेहतर बनाने के लिए आवश्यक गुणों का विकास किया जाए, जो कि किसी भी संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए अत्यंत आवश्यक है! शोधार्थी के भीतर लोकतांत्रिक और नैतिक मूल्यों के विकास से यह गुण स्वतः विकसित हो जाते हैं, जिसके फलस्वरूप शोधार्थियों में सहनशीलता, सद्भाव, निष्पक्षता और अनुशासन इत्यादि गुणों का विकास हो जाता है।
भारत जहां शोध और इससे जुड़े कार्यों पर ना के बराबर खर्च करता है वहीं दूसरी ओर शोध संस्थानों में प्रोफेसर और वैज्ञानिकों से लेकर छात्रों में जाति, धर्म, लिंग, संप्रदाय के आधार पर भेदभाव, शोषण, टीका टिप्पणी और छींटाकशी एक आम घटना हो गई है ! केवल संसाधन जुटाने मात्र से वांछित लक्ष्य प्राप्त नहीं होंगे! देश के सभी बड़े शोध संस्थानों मसलन एम्स, सीएसआईआर, आईसीएमआर, आईसीएआर, डीबीटी और डीएसटी की समस्त प्रयोगशालाओं के साथ ही साथ आईआईटी, नाइसर(NISER), आइसर (IISER), NIT, NIPER जैसे संस्थानों में शोध कार्य तो चल रहा है, और सरकार भी लगातार सुविधाएं जुटाने को लेकर प्रयासरत है। मगर जब तक शोध छात्रों को अनुसन्धान के लिए स्वस्थ तथा स्वच्छ वातावरण नहीं मिल जाता, तब तक शोध छात्रों के मानसिक स्तर में भी गिरावट होती रहेगी। छात्रों को उनके शोध सम्बन्धी कार्यों के लिए सही समय पर सभी जरुरी सुविधाएं जैसे उपकरण, कैमिकल और छात्रवृति नहीं मिलने से उनका लगातार शोध पर फोकस करना कठिन हो जाता है। शोधार्थी भी अन्य व्यक्तियों के सामान ही स्वयं, अपने परिवार, समाज और देश की प्रगति और निर्माण में अपना योगदान करते है। शोध एक प्रक्रिया है, और इसमें समय भी लगता है, इसमें शोधार्थी छात्रों की दिन और रात की मेहनत होती है। शोध संस्थानों में देश के विभिन्न जगहों के छात्र एक साथ आपस में मिलकर कार्य करते है, और देश विदेश की बड़ी बड़ी सेमिनार और कांफ्रेंस के माध्यम से नए नए विचारों का आदान प्रदान करते हुए चिकित्सा, कृषि, एवं तकनीकी के क्षेत्र में नवाचार के लिए प्रयासरत रहते हैं । शोध के क्षेत्र में काम करने की कोई समयावधि निश्चित नहीं होती है (Research is not a time bound process), एक अवधारणा (hypothesis) को सिद्ध करने के लिए ५ से ७ साल तक का समय लग जाता है। शोध के क्षेत्र में देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए शोधार्थी तैयार करना बहुत ही जरुरी है ताकि जरुरत के समय उच्च स्तर की प्रोडक्टिव शोध को समय से पूरा किया जा सके। साथ ही साथ देश और प्रदेशों की सरकारों को अनुसंधान को बुनियादी आवश्यकता मानकर उसके ऊपर निवेश करने में तनिक भी संकोच नहीं करना चाहिए ।
वर्तमान में देश के विभिन्न शोध संस्थानों में आत्महत्या और यौन शोषण के मामले बहुतायत में सामने आ रहे है। अगर शोधार्थी छात्र इन सभी त्रासद समस्याओं से घिरा रहेगा तो उसका मन शोध कार्य में कैसे लगेगा, और वह किस तरह से शोध कार्य कर सकेगा। देश भर के विभिन्न संस्थानों के वैज्ञानिक और प्रोफेसर जिस प्रकार से शोध छात्रों का शोषण करते है शोध कार्य के लिए सही वातावरण का निर्माण संभव नहीं है। अतएव संसाधनों के विकास के साथ ही साथ वैज्ञानिक और फैकल्टी के चयन प्रक्रिया में भी व्यापक सुधार किये जाने चाहिए, ताकि प्रदर्शन (Performance) को मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों तरह से मजबूत किया जा सके ।
रिसर्च के अतिरिक्त नौकरी के दौरान भी कई महिलाएं और पुरुष यौन शोषण जैसे गंभीर और घिनौने अपराधों का शिकार होते हैं! बौद्धिक संपदा चोरी के विवाद आए दिन सामने आते रहते हैं! किसी शोधार्थी के कार्य को प्रोफेसर गाइड कुछ निहित स्वार्थों के वजह से और भेदभाव के कारण अपने नाम और दूसरे छात्रों के नाम से प्रकाशित कर देते हैं, हालांकि समय-समय पर कॉपीराइट एक्ट में बदलाव होते रहते हैं,लेकिन इस प्रकार के अपराधों के लिए यह नाकाफी काफी है! शोध नैतिकता आज संस्थानों में कमजोर होती हुई दिखाई देती है! यह सभी मुद्दे भारतीय शोध क्षेत्र की विकास यात्रा में अभी तक बहुत बड़ा रोड़ा बने हुए हैं! इस प्रकार के व्यक्तिनिष्ठ पूर्वाग्रह, भेदभाव और शोषण जैसे तत्व शोध के लिए आवश्यक स्वच्छ और स्वस्थ माहौल को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ते! भारत सरकार विश्वगुरु भारत, स्वदेशी भारत, आत्मनिर्भर भारत के स्वप्न को मूर्त रूप देना चाहती है, किंतु संस्थानों के खराब होते माहौल पर उसका कोई नियंत्रण दिखाई नहीं देता है बल्कि इसके विपरीत माहौल खराब करने वालों को राजनैतिक संरक्षण प्राप्त होता है, अगर यही हाल बदस्तूर जारी रहा तो निसंदेह जिस भारत की कल्पना हमारी सरकार और समाज कर रहे हैं, वह कभी यथार्थ में नहीं बदल पाएगी इस प्रक्रिया में सरकार के साथ-साथ पूरे समाज का बहुत बड़ा नुकसान है! कल्पना कीजिए कि कैसा होगा वह भारत जिसमें सभी वैज्ञानिक तथा शोधार्थी जाति, धर्म, लिंग, संप्रदाय, रंग, भाषा के पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो तो वे शोध संस्थान के संसाधनों का प्रयोग किस प्रकार से और किस दिशा में करेंगे और किस गुणवत्ता का शोध उस संस्थान द्वारा किया जाएगा यह वास्तव में बहुत खतरनाक स्थिति है और वर्तमान समय में विचारणीय भी…।
कोविड 19 के दौर में भारत को नए सिरे से गढ़ने की आवश्यकता है! एक ओर जहां अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करनी है वहीं दूसरी ओर महामारी से भी लड़ना है! यह दोनों स्थिति इस बात की ओर इशारा करती हैं कि, सरकारों के साथ साथ पूरे समाज को एकजुटता से सभी प्रकार के भेदभाव को भुलाकर भारत के लिए के लिए तप करना है अन्यथा कितनी भी योजनाओं और पैकेज की घोषणा हो जाए कोई विशेष बदलाव आने वाला नहीं! इसकी पुष्टि इस बात से होती है कि, आजादी के बाद से अब तक हमने शोध के क्षेत्र में बहुत ज्यादा अर्जित नहीं किया है जितना कि इस देश की क्षमता थी!
इस सन्दर्भ में देश के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की एक बात बहुत ही प्रासंगिक है जिसमे उन्होंने कहा था कि ‘हमारी प्राथमिकता क्या है, ये बताना मुश्किल है, लेकिन हमें प्राथमिकताओं पर काम करना होगा’। इसी देश में कई प्रख्यात वैज्ञानिक हुए हैं जिन्होंने शून्य से लेकर चंद्रयान, मंगलयान तक का निर्माण किया है। देश के पूर्व राष्ट्रपति और मिसाइल मैन के रूप में प्रसिद्ध वैज्ञानिक अब्दुल कलाम जी और सीवी रमन की मिसाल देना गलत नहीं होगा , वो भी इसी मिटटी के सपूत है जिन पर देश ही नहीं दुनिया गर्व करती है। हमारे देश में शोध छात्रों के पास बौद्धिक कौशल की कमी नहीं है, कमी है तो सिर्फ मानसिकता और कार्य करने के लिए स्वस्थ और स्वच्छ वातावरण की। विश्व के सभी विकसित देश इस क्षेत्र में प्रगति कर रहे है, शोध छात्र खुश होकर रिसर्च करते है, क्यूंकि वहां बेहतर माहौल के साथ-साथ शोधार्थियों को सभी प्रकार की बुनियादी सुविधाएं प्रदान की जाती है। इसके विपरीत भारत में शोधार्थियों को मानसिक प्रताड़ना, यौन शोषण और आर्थिक दुश्वारियों से उत्पन्न तनाव का सामना आमतौर पर करना पड़ता है ।
अतः देश के वैज्ञानिकों और शोध से जुड़े नीति निर्माताओं को शोधार्थियों के लिए स्वस्थऔर स्वच्छ वातावरण निर्माण का प्रयास लगातार करते रहना चाहिए, क्यूंकि अगर हमारे शोधार्थी तनाव रहित माहौल में काम करेंगे तो हमारे देश में शोध का स्तर वैश्विक स्तर के बराबर लाने में बहुत सहायता मिलेगी। इसके अलावा सरकार को शोध के क्षेत्र में नीतिगत रूप से इसके आधारभूत ढांचों में बदलाव कर इसको मजबूत करना चाहिए। सरकारों को स्पष्ट नीति के साथ विश्वविद्यालय और संस्थान स्तर पर संसाधन और सामर्थ्य, दोनों का विकास करना चाहिए ताकि अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इंटरडिसिप्लिनरी शोध कार्य के लिए नई सिरे से नीतियाँ बनाई जा सके। इन नीतियों के प्रभाव के कारण शोधार्थियों को देश-विदेश में रहकर शोध कार्य सीखने का मौका मिलेगा और इससे उनकी उत्पादकता में वृद्धि और नेतृत्व क्षमता में भी वृद्धि होगी।
वर्तमान भारत में एम्स, सीएसआईआर, आईसीएमआर, आईसीएआर, डीबीटी और डीएसटी की समस्त प्रयोगशालाओं के साथ – साथ आईआईटी, नाइसर(NISER), आइसर (IISER), NIT, NIPER आईआईएससी बेंगलुरु और तमाम केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालय स्थापित हो चुके हैं जो बहुत बड़े कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं बस जरूरत थोड़ी सी आर्थिक सहायता बढ़ाने के साथ कार्य के बेहतर माहौल बनाने की बात पर जोर देने की है! टेलर के साइंटिफिक मैनेजमेंट से भी हम सबक ले सकते हैं और एमपी फॉलेट के हुमन बिहेवियर अप्रोच से भी सबक ले सकते हैं कि किसी भी संगठन में उसके कार्मिकों द्वारा संगठन के लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है, जबकि संगठन में कार्यस्थल का माहौल स्वच्छ और स्वस्थ हो।
आज हम छोटी से छोटी टेक्नोलॉजी के लिए भी अमेरिका यूरोप और जापान पर निर्भर है और इसके लिए अरबों डॉलर प्रतिवर्ष आयात पर खर्च करते हैं! राफेल हो, मिराज हो या सुखोई क्यों हमें खरीदने पड़ते हैं! हमारे यहां न्यूक्लियर पावर प्लांट फ्रांस लगा रहा है! भारत मैन्युफैक्चरिंग इकोनामी के बजाय ट्रेड इकोनामी बनकर रह गया है! यह सभी तकनीकी भारत में विकसित की जा सकती है क्योंकि जो अरबों डॉलर हम आयात करने पर खर्च करते हैं वही निवेश सरकार यदि इन संस्थानों मे करें तो निश्चित रूप से हमारे संस्थानों के प्रोफेसर, वैज्ञानिक और शोधार्थी बहुत उत्कृष्ट तकनीकी विकसित कर सकते हैं और यह निवेश इतना पर्याप्त है कि शोधार्थियों को विभिन्न संस्थानों में नियुक्ति देकर उनकी बेरोजगारी की समस्या को भी दूर किया जा सकता है क्योंकि इसमें कोई दो राय नहीं कि शोधार्थियों को पीएचडी खत्म करने के बाद भी भारत में रोजगार के प्रति संदेह बना रहता है! यही कारण है कि तमाम शोधार्थी पीएचडी करने के बाद विभिन्न देशों में पलायन कर जाते हैं क्योंकि वहाँ पर शोध कार्य हेतु, बेहतर माहौल, बुनियादी सुविधाएं और अच्छा पैसा मिलता है और यह ब्रेन ड्रेन अंडर ग्रेजुएट से लेकर पीएचडी तक सभी क्षेत्रों में आजादी के बाद से ही वर्तमान तक जारी है, जो कि बहुत बड़ी चिंता का विषय है! इस पर नियंत्रण के लिए अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया है जबकि दूसरी और हम देखें द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब जर्मनी तबाह हो गया था, तब उसने अपने ब्रेन ड्रेन को रोकने के लिए शोधार्थियों और छात्रों के साथ देश में सेवा करने के लिए कई समझौते किए! इसी प्रकार के कदम सभी विकसित राष्ट्रों ने उठाए।
पूरा विश्व आज ट्रेड वॉर की भेंट चढ़ चुका है जिसमें चीन सबको पछाड़ रहा है उसने पूरे बाजार पर कब्जा कर लिया है, उसके सस्ते माल का जवाब आज किसी देश के पास नहीं है, भारत सरकार और भारतवासी जहां बॉयकॉट चाइना का नारा देते हैं जो कि बिल्कुल जायज है किंतु दूसरी ओर उसका कोई विकल्प भी नहीं देते, क्योंकि जिस देश में भूख से हजारों लोग रोज मरते हैं, मिडिल क्लास के घरों का अर्थशास्त्र भी बिगड़ा हुआ है तो सस्ता माल खरीदना उसकी मजबूरी हो जाता है! इन सभी समस्याओं का हल मात्र और मात्र गुणवत्ता युक्त शोध कार्य में है क्योंकि शोध के माध्यम से ही हम सस्ती प्रौद्योगिकी से लेकर सस्ती वैक्सीन का निर्माण कर सकते हैं और भारत को आत्मनिर्भर स्वाबलंबी और विकसित राष्ट्र की श्रेणी में खड़ा कर सकते हैं। चीन ने लगातार अपने कार्य स्थलों पर पर काम का बेहतर माहौल बनाने के लिए प्रयास किए हैं और वो उसमें पूरी तरह सफल भी हुआ है। भारत भी ऐसा कर सकता है यदि कार्य स्थलों पर विभिन्न प्रकार के भेदभाव और शोषण खत्म हो जाए।
लेखक: AIRSA फाउंडर मेंबर
आल इंडिया रिसर्च स्कॉलर्स एसोसिएशन (AIRSA) नई दिल्ली