शरद जी ने तो मना किया था बंबई मत छोड़ो…..
[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]कीर्ति राणा[/mkd_highlight]
ये किस्सा है सन 1982 नवंबर महीने का…मुंबई (तब बंबई) में हिंदी ‘करंट’ साप्ताहिक से मैं 1 दिसंबर से कामनहीं करने संबंधी इस्तीफा दे चुका था। तब शरद जी इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप की पत्रिका ‘हिंदी एक्सप्रेस’ केसंपादक हुआ करते थे। नरीमन पॉइंट स्थित बहुमंजिला एक्सप्रेस टॉवर में ऑफिस था। करंट का ऑफिस भीनरीमन भवन, नरीमन पॉइंट 15 वां माला पर था। शरद जी से सप्ताह-पंद्रह दिन में एकआध बार मिलनेएक्सप्रेस टॉवर कभी रमेश निर्मल के साथ तो कभी अकेले भी चला जाता था।
उस वक्त करंट में मेरे जिम्मे पेज मैकिंग में सहयोग के साथ ही फिल्मों की प्रेस कांफरेंस कवर करना, , फिल्मीगपशप लिखना, जंहागीर आर्ट गैलरी में आर्ट एग्जीबिशन, पृथ्वी थियेटर में होने वाले नाटकों के आर्ट क्रिटिकके नाम से आने वाले निमंत्रण पर नाटक देखना-समीक्षा लिखना आदि दायित्व था।
मैंने करंट से इस्तीफा दे दिया है यह जानकारी शरद जी* को और टाइम्स ग्रुप की फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ केसंपादक विनोद तिवारी जी को भी मिथिलेश सिन्हा से लग चुकी थी। तब नभाटा में भी आना-जाना था, प्रकाशहिंदुस्तानी वहीं थे तब। धर्मयुग में भी मनमोहन सरल जी, गणेश मंत्री, हरीश पाठक, अवधेश व्यास सेमुलाकात हो जाती थी। पत्रकार-मित्र टिल्लन रिछारिया हिंदी एक्सप्रेस में थे। शरद जी से शायद उन्होंने भी मेरेइस्तीफे को लेकर चर्चा की होगी, एक शाम टिल्लन जी ‘करंट’ में आए और मुझ से कहा शरद जी याद कर रहेहैं, मिल लेना, कब आओगे। मैंने कहा कल आता हूं।
अगले दिन दोपहर में पहुंच गया।उनके ऑफिस में गया। कुछ लिख रहे थे।मेरी तरफ देखा। शरद जी कीआंखों के अंदाज को पहचान पाना बहुत मुश्किल था। जब वे मंच पर गद्य में व्यंग्य पढ़ते और सारा हॉल ठहाकोंसे गूंज रहा होता तब भी वे चेहरे पर मासूमियत और आंखों में भोलापन लिए माइक के सामने कुछ पल शांतखड़े रहते थे। तो उन्होंने चश्मे के अंदर से झांकती आंखों से मेरी तरफ देखा और लिखने में लग गए। अपन नेसमझ लिया कि बैठो। बैठ गए, कुछ देर बाद उन्होंने पेन रखा, सांस ली और बोले पार्टनर, बंबई छोड़ रहे हो? इस्तीफा दे दिया, क्यो?
मैंने अपनी पारिवारिक परेशानियों जैसा कारण बताया, वे हल्का सा मुस्कुराए और बोले पता है ना मैं भी इंदौर, मध्य प्रदेश से आया हूं। तुम्हें क्या लगता है मेरे सामने परेशानियां नहीं है? मैं निरुत्तर।
वे फिर बोले, सुनो पार्टनर, यदि करंट में, अधिकारी जी या अयूब सैयद से कोई परेशानी है तो हमारे साथ आ जाओ। बहुत दूर भी नहीं है नरीमन भवन से एक्सप्रेस टॉवर। मैंने कहा, इंदौर लौटने का मन बना लिया है।शरदजी बोले चलो, और सोच लो, कल-परसो में बता देना मन बदल जाए तो।
उधर ‘माधुरी’ से विनोद तिवारी जी ने मिथिलेश जी से कहा कीर्ति को मिलने के लिए कहो।उनसे भी मिलनेगया। विनोद जी ने माधुरी से जुड़ने का ऑफर रखते हुए कहा कम से कम 6 महीने अस्थायी तौर पर कामकरना होगा।इसके बाद स्टाफर रखने की जिम्मेदारी मेरी। पर मुझे तो इंदौर ही आना था ना….!
(शरद जोशी जी से जुड़ा यह प्रसंग भी उनके जन्मदिन (21मई) पर नईदुनिया में डॉ अनंत श्रीमाली के लेख ‘शरदजी ने जो लिखा-कहा’ को पढ़ते-पढ़ते याद आ गया। उनके लेख में एक लेखकीय टिप्पणी गौर करनेलायक है कि यदि आजादी के पहले का भारत देखना है तो प्रेमचंद को और बाद का देखना है तो शरद जी कोपढ़ा जाए। डॉ श्रीमाली के शब्दों में वे साधारण दिखने वाले असाधारण व्यंग्यकार थे।)