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पटरियों पर बिखरी रोटियां बनाम राजनीती की रोटियां

 

 

[mkd_highlight background_color=”” color=”red”]गायत्री मावई[/mkd_highlight]

 

 

बेहद दर्दनाक और शर्मनाक तस्वीरे पिछले कुछ दिनों से देश देख रहा है, मई माह मजदूर दिवस से शुरू हुआ लेकिन यही मई का महीना देश के मजदूरों के लिए सबसे दुर्भाग्यशाली बन गया है, देश के विकास की नीव कहलाने वाले इन मजदूरों की इस दुर्दशा ने देश के तथाकथित विकास की कलई खोल कर रख दी है। साथ ही थोथी राजनीतिक संवेदनशीलता का असली चेहरा भी उजागर कर दिया है।

आपदा कोई भी हो, उससे सबसे ज्यादा प्रभावित होता है सबसे कमज़ोर वर्ग गरीब। क्यों हमारा सिस्टम कोई भी योजना बनाते समय देश के सबसे कमज़ोर आदमी और उसकी मजबूरियों को ध्यान में नहीं रखता। रेल की पटरियों पर बिखरे मजदूरों के शव, और बिखरी रोटियां हमारे तंत्र के बेहद अमानवीय चेहरे को दर्शा रही हैं.

कितने आश्चर्य का विषय है लॉक डाउन के 50 दिन बाद भी तमाम राज्य सरकारें और स्वयं केंद्र सरकार मिलकर इन गरीब मजदूरों के लिए कोई सार्थक पहल नहीं कर सकी। क्यों प्रशासकीय तंत्र में बैठे लालफीताशाहो को, जो देश विदेश में सरकारी खर्चो पर बड़े बड़े प्रशिक्षण प्राप्त कर बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान हैं, को आपदा प्रबंधन में गरीब लोगो की लाचारी का अनुमान नहीं हुआ।

पहले तो बिना किसी पूर्व तैयारी के सरकार ने लॉक डाउन लागू कर दिया, फिर पुलिस प्रशासन को सख्ती से उसका पालन करने के निर्देश दे दिए। रोज़ कमाने खाने और परिवार का पेट पालने वाले इन मजदूरों का क्या होगा यह किसी ने नहीं सोचा. लेकिन जब समस्याए सर उठाने लगी तो आंशिक प्रबंधन किये गए।

सरकार में शीर्ष पदों पर विराजमान माननीयो को लगता है कि उनके भाषण और उनके ट्वीट कर देने मात्र से उनके कर्तव्य की इतिश्री हो गई. माफ़ कीजिये, जो गरीब है उसके पास न आपके विडियो देखने की फुर्सत है न आपके ट्वीट, ये तो मीडिया वालो के लिए है और उनलोगों के लिए जिनके पास घर में सब आवश्यक संसाधन मौजूद है।

अगर वास्तव में मजदूरों तक अपनी बात पहुँचाना है तो उन तक पहुंचना होगा। क्या जिला प्रशासन को 50 दिन में यह जानकारी नहीं कि मजदूर कहाँ हैं? किस हाल में हैं? असंभव… सभी टीवी चैनल दिखा रहे हैं कि किस तरह ये लोग मजबूर होकर अपने घर पहुँच पाने के लिए रेल की पटरियों के सहारे पैदल पैदल चले जा रहे हैं, उनका दर्द भी उन्ही के शब्दों में सबने सुना है देखा है. क्या इतना निर्मम है हमारा व्यस्था तंत्र ? यह प्रश्न बहुत लाज़मी है जब लगातार इस तरह की ख़बरें मिल रही हैं। ऐसे दृश्य ह्र्य्दय को विचलित कर रहे हैं… फिर ये उनपर असर क्यों नहीं करते जिनपर इनकी ज़िम्मेदारी है।

अगर आप उन्हें कोई सुविधा नहीं दे सकते तो कम से कम पुलिस को ही यह समझा देते कि यदि मजदूर और उनके परिवार अपने घर जा रहे हो तो उन्हें लाठी डंडे बरसाने की बजाये उनकी समस्या को प्रशासन तक पहुचाये। उनको जो भी लाज़मी सहायता मिल सकती हो वो दिलवाई जाये। कुछ न कर सकें तो उन्हें इन सडको पर चलने से न रोकेंं। क्योकि वहाँ शायद पेड़ो की छाँव तो नसीब हो सकेगी कुछ पल के लिए, सड़क पर पुलिस से बचने के लिए रेल की पटरियों को चुनकर अनजान सफ़र पर ये मजदूर निकल पड़े हैं।

उन्हें ये विश्वास हो चला है कि यहाँ कोई उनकी परवाह नहीं करने वाला. उनकी बेबसी देखिये भर गर्मी में बच्चो और महिलाओ सहित कई कई दिन पैदल चल रहे है, रस्ते में खाने पीने या आराम करने की कोई व्यवस्था नहीं, पास में पैसा नहीं. जिंदगी भी कितनी बेरहम हो गयी है।

सरकारों का दायित्व केवल तरह-तरह से सरकारी कोष में राशी जमा करना ही नहीं है, लोग दिल खोल कर मदद भी कर रहे हैं. मदद किस लिए कर रहे हैं देश के लोग? ताकि हमारा कोई भी हमवतन भूखा न सोये, सरकार न केवल कोरोना की जांच और उपचार करे बल्कि हर मजबूर को यह एहसास दिलाये की लॉक डाउन भले ही है, तुम अकेले नहीं हो, तुम हमारी ज़िम्मेदारी हो, देश के लोगो ने तुम्हारे लिए मदद भेजी है, काश कि नेताओ ने जो संवेदनशीलता विडियो और ट्वीट पर दिखाई है वह वास्तव में ज़मीन पर भी दिखाई देती।

लेकिन अफ़सोस! विपक्षी पार्टियाँ भी इस मौके पर केवल राजनीती कर रही हैं. जब देश में आपदा आई हो, तो क्या विपक्ष का काम केवल सरकार की कमियों को उजागर करना है, क्या केवल पैसो के खर्चो पर नज़र रखने के लिए हैं विपक्ष? क्यों नहीं देश की, इन मजदूरों -मजबूरो की चिंता कर दिन भर विडियो और ट्वीट करने वाले इन नेताओ ने अपनी पार्टी के उन कार्यकर्ताओ को जो इनकी एक आवाज़ पर कुछ भी कर गुज़रते हैं, को काम पर लगाया। क्यों नहीं उनसे कहा की हर शहर और हर गली में कौन मजदूर कहाँ से आया है, किस हाल में है, उसका पास बना या नहीं, खाने को कुछ है या नही? जाने की सुविधा है या नही पता करो, सहायता करो और कुछ न हो सके तो शासन प्रशासन पर दबाव बनाओ, उनको ये जानकारी देकर कहो कि इनको जरूरी सहायता पहुंचाए।

लोग मर रहे हैं, टीव्ही चैनल खबर बना रहे हैं, सरकारे मुआवजा बाँट देगीं, लाशो के लिए वाहन की व्यवस्था करने वाला और जिन्दो को उनके हाल पर मरने के लिए छोड़ देने वाला यह व्यवस्था तंत्र खुद वेंटिलेटर पर है.. इसको ऑक्सीजन देने की ज़रुरत है। लेकिन करेगा कौन? रेल की पटरियों पर बिखरी रोटियाँ अब भी चीख चीख कर कह रही हैं अब तो बंद करो ये राजनीतिक रोटियों का सेंकना… कभी तो देश के नाम पर एकजुट हो जाओ। गाँधी जी होते तो वे भी यही कहते सबको सन्मति दे भगवान्…। 

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