Madhy Pradesh

हनुमान जंयती विशेष : महावीर हनुमान भारत के तन मन और प्राणं में व्याप्त

जयंत शाह

8 अप्रैल चैत्र शुक्ला पूर्णिमा की पवित्र बेला.. भगवान शिव ने अपने परम आराध्य श्री राम की मुनि- मोहिनी लीला के दर्शन करने ..एवं सहाय होने के लिए अपने अंश गयारहवें रुद्रावतार से इस शुभ वेला मे माता अंजना की कोख से हनुमान् के रुप मे इस धरती पर अवतरित हुए । भारतवर्ष में पुण्य धरा पर शायद ही कोई जनपद.. कोई नगर.. या ग्राम ऐसा होगा जहां मारुति नंदन श्री हनुमान जी का छोटा या बड़ा मंदिर.. या मूर्ति ना हो..
अखाड़ों पर जहां पवन पुत्र की मूर्ति नहीं होती वाह इनकी मिट्टी की प्रतिमा बनाकर पूजा की जाती है ..सच तो यह है की महावीर हनुमान भारत के तन मन.. एवं प्राणं में व्याप्त है और वे सदा ही रहते हैं ..परम आदर्श श्री हनुमान जी का जीवन प्रकाश स्तंभ की भांति हमारे कल्याण मार्ग का निश्चित दिशा निर्देश करता रहता है ।

युवावस्था में जब से मेरी रुचि अध्यात्म की ओर बढी.. तभी से मेरे मन में यह विचार चल रहा था कि पहले से जब ..श्री वाल्मीकि रामायण.. तुलसीकृत श्री राम चरित्र मानस ..श्रीमद्भागवत गीता
एवं अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध हैं.. तो गीता प्रेस गोरखपुर के संस्थापक श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जी को ऐसी क्या आवश्यकता महसूस हुई.. उन्होंने राम चरित्र मानस में से
” सुंदरकांड “ को अलग से पुस्तक के रूप में प्रकाशित कर.. उसे बहुत कम कीमत पर उपलब्ध कराई.. जैसे-जैसे विद्वान वक्ताओं के प्रवचन सुने.. कुछ पुस्तकों का अध्ययन करने का प्रयास किया ..

मुझे सुंदरकांड का महत्व समझ आने लगा ..समस्त भागवत कथा और भारतीय सनातन धर्म को सरल शब्दों में संक्षेप में समझना हो तो ..श्री हनुमान जी द्वारा माता सीता की खोज की संपूर्ण यात्रा को केंद्र में रखकर समझा जा सकता है..भगवान श्री राम के आदेश पर माता सीता की खोज में निकले हनुमान जी द्वारा समुंद्र लांघ कर लंका में प्रवेश करने की.. एवं माता सीता को श्री रामचंद्र जी का संदेश देने से लेकर ..माता सीता की कुशलता का संदेश वापस पहुंचकर श्री राम को प्रदान करने की यात्रा में हनुमान जी का बाहरी संघर्ष तो सब ने वर्णन किया है..किस प्रकार लोभ रूपी  मैनाक पर्वत को केवल स्पर्श करके आगे बढ़ गए.. एवं अगली बाधा अभिमान रूपी सुरसा को पहले तो उससे दुगुना रूप दिखाया ..फिर छोटा रूप करके सुरसा के मुख में प्रवेश करके बाहर आकर उसके अभिमान को संतुष्ट कर आगे निकल गए..।

अभिमान को निराभिमानता से ही जिता जा सकता है..आगे बढ़े तो ईर्ष्या रूपी सिहींका जो आसमान में उड़ने वाले की परछाई को छल के द्वारा पकड़ कर गिरा देती थी.. उसको मार कर हनुमान जी लंका के द्वार पर पहुंच गए..यहां तक के कथानक से हम लोग सभी लगभग परिचित हैं.. परंतु अब प्रारंभ होती है वास्तविक परीक्षा… जो प्रत्येक साधक के जीवन में आती है| अपने स्वयं पर और मन की वृतियो पर नियंत्रण कर लेना .. समुद्र पार करके जैसे ही पर्वत शिखर पर लंका दिखी उसका वैभव अवर्णनीय था ..अद्भुत था.. पूरी लंका ही स्वर्ण से जगमग आ रही थी ..जो किसी का भी चित् डिगा सकती है .. क्योंकि लोभ का पिता है लालच .. हनुमान जी ने प्रभु राम का नाम लेकर लंका के द्वार पर द्वारपाल के रूप में खड़ी लंकिनी का वध कर. लंका में प्रवेश किया ..उनको एक जगह पर व्यायाम शाला में विभिन्न प्रकार के युद्ध अभ्यास करते हुए राक्षस दिखे.. हनुमान जी भी सभी प्रकार की  कलाओं में पारंगत थे.. एक क्षण विचार आ सकता था मैं भी इनसे दो-दो हाथ कर लूं.. और अपना कौशल इन्हें दिखाउं .. परंतु हनुमान की दृष्टि तो लक्ष्य पर थी वहां नहीं रुक..माता सीता की खोज करने जब आगे बढ़े तो एक विश्वविद्यालय पर उनकी दृष्टि गई जहां पर ..जहां बड़े-बड़े विद्वान आचार्य गण एवं छात्र हवन के साथ ही वेद पाठ एवं मंत्रोच्चार कर रहे थे ..यदि लक्ष्य के प्रति एकाग्रता नहीं होती तो हो सकता है उनसे शास्त्रार्थ में लग जाते.. अपने मन को एकाग्र करके जैसे ही आगे बढ़े एक सुंदर वाटिका दिखाई दी जहां पर स्वर्ग की अप्सराएं भी लजा जाए ऐसी सुंदर स्त्रियां बैठकर प्रार्थना कर रही थी ..रावणं उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर ले ..  हनुमान जी  को  लंका की भव्य नृत्यशाला भी दिखाई पड़ी जहां नृत्यांगना नृत्य कर रही थी राक्षस गण स्वर्ण मुद्राएं लुटा रहे थे..  जुआ घर … भी दिखाई पड़ा.. परंतु किंचित मात्र भी चंचलता हनुमान जी के मन में नहीं  आइ..यहां..  कहा जा सकता है..

यहां यह कहा जा सकता है.. सौ योजन समुद्र पार करने से भी दुष्कर कार्य है सौ योजन रूप का समुद्र पार कर जाना .. हनुमान जी ने श्रीराम को अपने ह्रदय में धारण करके एवं लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ गए.. जब हनुमानजी के सामने लंका की आयुध शाला आई तो उसमें रखे हुए अजय अस्त्रों का अवलोकन किया ..यदि एक सामान्य योद्धा होते तो उनका आत्मविश्वास ही डगमगा जाता । परंतु हनुमान जी का तो पूरा विश्वास अपने इष्ट पर था और दृष्टि लक्ष्य पर थी.. रावण के महल में मंदोदरी के अंतपूर में उन्होंने मंदोदरी को श्रृंगार करते हुए देखा.. एक क्षण के लिए विचार करने लगे कहीं यही तो माता सीता नहीं ..क्योंकि उन्होंने पहले माता सीता के दर्शन नहीं किए थे..

उसी समय उनका विवेक जागृत हुआ ..और मन ही मन विचार किया यह स्त्री सुंदर भी है ..श्रृंगार भी कर रही है.. परंतु इसके मुख पर जो प्रसन्नता है एवं रावण को रिझाने का जो भाव है .. यह माता सीता नहीं हो सकती.. क्योंकि श्री राम के वियोग में माता सीता प्रसन्न नहीं रह सकती.. वाल्मीकि रामायण में विभीषण से भेट का प्रसंग नहीं है.. श्री मानस में विभीषण से भेंट होती है एवं अशोक वाटिका का पता बताते हैं.. वाल्मीकि रामायण के अनुसार हनुमान जी परम पिता परमेश्वर से प्रार्थना करते हैं .. उनकी चेतना में संपाती द्वारा बताई अशोक वाटिका स्मरण आ जाता है..अशोक वाटिका में परम तपस्विनी रूप में विराजित माता सीता का दर्शन करते ही हनुमान जी के अंतस श्रद्धा के भाव जागृत होने लगते हैं.. विरहाकुल माता सीता को देखकर हनुमान जी अत्याधिक दुखी होते हैं.. वृक्ष के ऊपर जाकर बैठ जाते हैं.. उसी समय रावण अशोक वाटिका में आता एवं माता सीता को चेतावनी देता है..चंद्रहास तलवार से डराता है ..हनुमान जी को अत्यधिक क्रोध आया अभी रावण का वध कर के माता सीता को मुक्त कराकर श्री राम जी के पास ले जाऊं.. परंतु दूसरे ही क्षणं अपना लक्ष स्मरण आ जाता है कि केवल माता सीता की सुधि श्री राम जी को देनी है.. श्री राम जी ही आकर रावण का वध करेंगे.. एवं माता सीता को ससम्मान लेकर जाएंगे.. माता सीता को सांत्वना दी कि शीघ्र ही प्रभु श्री राम आएंगे एवं लंका पर विजय प्राप्त करेंगे..मेघनाथ से युद्ध हुआ मेघनाथ ने ब्रह्मास्त्र का उपयोग किया ..हनुमान जी भी ब्रह्मास्त्र का उपयोग कर सकते थे.. परंतु धैर्य रखते हुए ब्रह्म पाश में बंध गए..

जासु नाम जपि सुनहुं भवानी, भव बंधन कांटे ही नर ज्ञानी ।
तासु दूत कि बंध तरु आवा,
प्रभु कारज लगि कपिहिं बंधावा

आगे का कथानक हम सभी जानते हैं ..किस प्रकार रावण की सभा में हनुमान जी का रावण से आमना-सामना हुआ.. एवं रावण द्वारा हनुमान जी की पूंछ जलाने का आदेश दिया गया.. हनुमान जी अपने लक्ष्य से बिल्कुल विचलित नहीं हुए .. अपमान के घूंट को चुपचाप पी गए .. लंका मैं अग्नि तांडव किया.. पुंछ से अग्नि बुझाइ ..माता सीता को प्रणाम किया एवं आशीर्वाद लिया.. वापस किष्किंधा पहुंचकर श्री राम जी के चरणों में मस्तक रखकर माता सीता द्वारा दी गई निशानी चूड़ामणि प्रभु को दी.. माता सीता की प्रभु विरह मे दुखद दशा का वर्णन किया.. तथा पूर्ण समर्पण भाव से कहा यह कार्य आपकी कृपा से ही संपन्न हो पाया है.. यह है श्री हनुमान जी का लक्ष्य के प्रति सजगता एवं समर्पण..।

मंगल मूर्ति मारुति नंदन
सकल अमंगल मूल निकंदन

Related Articles

Back to top button