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प्रेम क्या है? भाव, संबंध या वस्तु…

 

  [mkd_highlight background_color=”” color=”red”]शालिनी शुक्ला [/mkd_highlight]

 

 

 

प्रेम ! क्या होता है, प्रेम ? भाव, संबंध या वस्तु । शायद थोड़ा-थोड़ा सब कुछ, या इनमें से कुछ भी नहीं। किंचित कुछ ऐसा भी हो सकता है, कि जिसने, जिस रूप में चाहा हो, उसे उसी रूप में दिखाई पड़ता हो। तब तो ठीक ही है, कि ‘ जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी…’ का ही रूप अधिक समीचीन होगा, फिर हम जिस रूप के अभिलाषी होते हैं, प्रेम हमें उसी रूप में प्राप्त होता है। हमारी आकांक्षा और अनुमान के अनुरूप।

फिर तो बहुत ही सहज है, प्रेम को जानना और उसे पाना। फिर क्यों नहीं मिलता सबको प्रेम ? मिलकर भी दूर चला जाता है प्रेम! सुख देकर क्यों दुख दे जाता है, प्रेम ? हम जितना उसके पीछे भागते हैं, वह हमसे उतना ही दूर क्यों चला जाता है। कहीं प्रत्याकर्षण से तो नहीं बंधा होता है ? हम जितना समीप जाते हैं, उसके वह निश्चित दूरी बनाकर साथ – साथ चलता जाता है, नदी की दो धाराओं की तरह, रहता है, साथ – साथ, चलता है, साथ – साथ। पर क्यों नहीं लगता गले ? अपनी बांहों में भर कर ।

अपने सीने से चिपका कर बुझा देता सारी तपिश ? और बहा देता सारे गिले ,शिकवे, दुख और मन की सारी दुश्चिंतायें । वे सभी भ्रम और उनसे उत्पन्न दुरभिसंधियान, क्यों नहीं तोड़ देता संसार के सारे बंधन। मानव से मानव और प्रकृति से प्रकृति को जोड़कर जड़ और चेतन सभी को एकाकार क्यों नहीं करता ? यह सारी की सारी जद्दोजहद नहीं समझा पाता उन समाज के पहरेदारों को, जिन्हें दिन – रात फिकर लगी होते है, प्रेम करने वालों और उनके भीतर चल रही तरंगों को जान लेने। फिर उन्हें मिटा देने की की ख्वाहिश!

ढाई अक्षर का प्रेम ! जो समूल प्रकृति और उसके संपर्क में आने वाले सबको अपने में समाहित किए रहता है। बिना किसी द्वेष और बिना किसी राग के। एकात्मकता के सूत्र में बांधकर बढ़ा चलना चाहता है, चिरकाल से, अविरल, और अंनत की ओर। यह यात्रा उस अनंत परमेश्वर के ढाई पग का ही विस्तार तो नहीं, को समस्त ब्रह्माण्ड को अपने ढाई पग में नाप कर, ढाई अक्षरों में परिवर्तित कर दिया हो। जिसके आकर्षण में बंधा प्राणिमात्र अपनी मुक्ति की तलाश में फिरता है। और उससे लिपट कर ही अपने जीवन का ध्येय पाना चाहता है। कभी संबंध में , कभी पदार्थ में और कभी भाव में।

प्रेम यदि संबंध है, तो उसका दोनों तरफ से होना आवश्यक है। एकतरफा तो भक्ति होती है। यदि वस्तु है, तो वह प्रतिदान चाहती है। प्रेम भिक्षा नहीं होती, कि किसी ने झोली फैलाई और किसी ने भर दी। वह प्रेम के प्रत्युत्तर में प्रेम ही चाहता है, इसलिए उसे उसका प्रतिदान चाहिए होता है। जो उसके अंतस की रिक्तता को सिक्त करता है। उसके खालीपन की भरता है, और प्रेमी के पास न होने पर भी उसकी उपस्थिति का बोध कराता रहता है। उसको जोड़कर रखता है, सात समुन्दर पार से। और इस संसार के किसी भी एकांत से। उसका आभास मात्र ही हृदय को तरंगित करता है। जिसकी कल्पना का आह्लाद भावी जीवन के सपने बुनता है। यदि हम प्रेम को भाव रूप में ही स्वीकार लें। तब भी वह समर्पण मांगता है, मन का समर्पण । उसके प्रति मृदुल कल्पना में जीवन और कटु अनुभव में प्रेरणा के रूप में उपस्थित रहता है। तिकत्ता में मधुरता और निराशा में आशा बनकर फुट पड़ता है, प्रेम।

प्रेम के कितने रूप हैं ? शायद सृष्टि के जितने रूप हैं, सभी में विद्यमान होता है, प्रेम.. हमारे मानवीय व्यवहारों में अन्यान्य रूप में दिखता है, प्रेम। जड़ और चेतन के साथ – साथ निसर्ग, निश्छल प्रेम दिखता है, नदी की धारा में, सागर की लहरों में, पक्षियों के कलरव में, धूप और वर्षा में। किसी की यादों, किसी के पास होकर भी हम नहीं महसूस कर पाते और किसी से बहुत दूर रहकर भी धड़क उठता है दिल, उसकी एक सांस को महसूस करने हजारों कोस चली जाती है, हमारी सांस। प्रेम बताया नहीं जा सकता। उस मापा नहीं जा सकता किसी मीटर में। उस पाया भी नहीं जा सकता किसी भौतिक मूल्य चुकाकर। तभी कबीर को भी कहना पड़ा होगा, कि ‘ प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय ‘।

प्रेम का एक और रूप प्रचलित है, गली – गली, शहर – शहर, हर दिल में धड़कता प्यार ! ‘ लव आजकल ‘ मैं तो इस प्यार और प्रेम में वही फर्क देखती हूं, जो कांच और हीरे में देखती हूं। दोनों चमकीले, दोनों पारदर्शी और दोनों में प्रतिबिंबित होती छवि। किन्तु कांच की खूबसूरती तब तक है, जब तक वह सजा हुआ है, स्थिर है। वह आघात नहीं सह सकता। ठोकर लगने पर टूट जाता है। और टुकड़े – टुकड़े बिखर जाता है। खैर आघात लगने पर टूट तो हीरा भी जाता है, पर वह व्यर्थ नहीं होता। उसका कण – कण अपने आप में मूल्यवान होता है। कांच पैरों में चुभकर सिर्फ घाव ही कर सकता है।

मेरा सदा से यही मानना रहा, कि प्यार टूटता है, तो आघात करता है, द्वेष बढ़ाता है, पर प्रेम प्रतिकार सहकर भी प्रतिदान नहीं मांगता, क्योंकि प्रेम स्वयं साध्य है, उसके लिए किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती। होती है, तो बस एक सरल हृदय की। प्रेम ने जाति देखता है, न रूप, न ही विशेषता.. बस देखता है, अपने प्राप्य की योग्यता। प्रेम बस प्रेम होता है। यह प्रेम का ही प्रताप है, कि राम शबरी के बेर में स्वर्गिक मधुरता का प्राप्त करते हैं और कृष्ण दुर्योधन के छप्पन भोगों को त्यागकर विदुर के साग को प्रेम विवश होकर ग्रहण करते हैं। अतैव धन्य है, प्रेम, उसे निभाने वाले और वह धरा जिस पर प्रेम के ऐसे पथिक जन्मते हैं।

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