महावीर स्वामी जंयती विशेष : राग ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु
मनीषा शाह
6 अप्रैल सोमवार चेत्र सुदी त्रयोदशी अवसर है, चोवीसवे जैन तीर्थंकर भगवान श्री महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक का..। विश्व में फैली महामारी कोरोना वायरस के चलते महावीर जयंती से संबंधित सार्वजनिक उत्सव सभी स्थगित कर दिए गए। घर परिवार में इस वर्ष पूजा पाठ के साथ, घर पर ही कुछ मिष्ठान बनाकर महावीर जन्मोत्सव मनाया जाएगा। प्रभु महावीर स्वामी का गुणांनुवाद प्रतिवर्ष सार्वजनिक उत्सव के साथ मंदिर जी मे किया जाता है जिसमें समाज के सभी लोग भाग लेते हैं।
इस वर्ष प्रभु का गुणांनुवाद अपनी तूलिका के माध्यम से लेकर आपके पास पहुंचने का प्रयास करूंगी.. जैन संतों के प्रवचन में मंगलाचरण के समय उनके मुखारविंद से श्लोक बोला जाता है। जिसे मैं बचपन से सुनती आइ हुं। जो मुझे बहुत प्रभावित करता है।
” नमो दुर्वार रागादि वैरिवार निवारिणे
अर्हते योगिनाथाय , महावीराय तायिने “
इसी श्लोक को केंद्र में रखते हुए राजा सिद्धार्थ एवं महारानी त्रिशला के पुत्र के रूप में क्षत्रिय कुल में जन्मे राजकुमार वर्धमान से महावीर स्वामी बनने तक की यात्रा को रेखांकित करने का प्रयास करना चाह रही हूं..
मनुष्य के जीवन में सबसे बड़ा वैरि अर्थात शत्रु कौन है । श्लोक में कहां गया है राग ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है… क्योंकि किसी के प्रति राग से ही दूसरे के प्रति द्वेष उत्पन्न होता है। एवं द्वेष से ही क्रोध उत्पन्न होता है। मनुष्य को गर्त की ओर ले जाने का सिलसिला चलता ही जाता है। महावीर स्वामी ने अपने जीवन में सबसे पहले राग पर ही विजय प्राप्त की। राजकुमार वर्धमान का यह संकल्प था कि जब तक माता पिता जीवित है उनकी सेवा करूंगा उसके बाद दीक्षा ग्रहण करूंगा।
पिता राजा सिद्धार्थ एवं माता त्रिशला के देहांत के पश्चात समस्त राज पाठ को त्याग कर सन्यासी बनने की तैयारी कर ही रहे थे,उनके बड़े भाई नंदी वर्धन ने आकर विनय की हम माता-पिता के वियोग से ही अभी नहीं उबर पाए ऐसे समय में आप हमें छोड़ कर ना जाए तुम्हारा कर्तव्य है घर पर रहकर हमें सांत्वना देना जिससे परिजनों एवं प्रजा जनों में सुरक्षा एवं सुव्यवस्था संभव हो सके परंतु राजकुमार वर्धमान का लक्ष्य तो ना केवल स्वयं के आत्म कल्याण के मार्ग पर चलने का अपितु समाज में फैली हुई कुरीतिया, अंधश्रद्धा पूर्ण कर्मकांडो एवं अन्याय पूर्ण सामाजिक परंपराओं से होने वाली हानि से लोगों को सचेत करना एवं सत्य मार्ग दिखाना था।
अपने बड़े भाई का मान रखते हुए 2 वर्ष तक घर में ठहरना स्वीकार किया परंतु राजपरिवार में रहते हुए भी अत्यंत सामान्य प्रजाजन की तरह ही सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए 2 वर्ष पूर्ण घर में रहे..। 2 वर्ष पूर्ण हो जाने पर राज्य परिवार धन-धान्य महल आदि सब विषयों से अपने मन को अलग करते हुए मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि के दिन घर से बाहर चल दिए…। नगर से कुछ दूर ज्ञात खंड नामक स्थान पर महावीर का दीक्षा संस्कार हुआ..। वहीं पर जैन साधुओं के नियमानुसार उन्होंने अपना सर्वस्व (वस्त्र) भी त्याग कर मस्तक और मूंछ आदि के बाल भी अपने हाथों से ही उखाड़ कर “केश लोच “किया।
एवं विहार अर्थात पद चर्या पर चल दिए.. क्योंकि मुनियों के लिए वर्षा काल के अतिरिक्त अन्य ऋतु में एक स्थान पर रहने का विधान नहीं है..। वे निरूद्देश्य भ्रमण करते हुए कुमार गांव नामक स्थान पहुंच गए..
यहां जो घटना हुई इसका उल्लेख करना मैं अत्यधिक जरूरी समझती हुं..। महावीर स्वामी ध्यानस्थ होकर एक जगह खड़े थे । कुछ ग्वाले वाहां बैलों को चराने आए हुए थे महावीर स्वामी को वहां खड़े देखकर बैलों को उनके भरोसे छोड़कर अन्य किसी काम में चले गए वापस आकर महावीर स्वामी से उन्होंने बैलों के विषय में पूछा सांसारिक सभी कार्यों से विरक्त ध्यान अवस्था में महावीर स्वामी ने उनकी बातों को नहीं सुना। तो वह ग्वाले इधर उधर ढूंढने निकल गए जब बैल उन्हें नहीं मिले तो थककर वापस महावीर स्वामी के पास आ गए बैल भी थोड़ी देर बाद वंही आ गए ग्वालो ने समझा महावीर स्वामी ने हीं कहीं छुपा दिए थे और चुराना चाह रहे थे क्रोधित होकर महावीर स्वामी को रस्सियों से मारने लग गए महावीर स्वामी ना तो अपने ध्यान से डीगे नहीं मुंहा से एक भी शब्द निकाला यह उनके तपस्वी जीवन की पहले ही दिन परीक्षा थी…।
इस प्रकार 12 वर्षों तक तपस्वी जीवन में महावीर को विघ्न एवं बाधाओं का सामना करना पड़ा परंतु उनके संयमी एवं ब्रह्मचर्य युक्त जीवन का यह प्रभाव था जो इस प्रकार के भयंकर कष्टों को सहकर अपने मार्ग पर दृढ़ रह सके ।महावीर स्वामी ममता मोह से रहित रहकर ध्यान योग की सिद्धि के लिए निर्भय होकर दिन हो या रात्रि पर्वतों अंधेरी गुफाओं निर्जन वनो मैं भ्रमण करते हुए 6 दिन और 8 दिन के उपवास से लेकर अनेक दिन तक के अनशन तप किए.. जब सारी प्रकृति झंझावात के उग्र वेग से कांपने लगती तब महावीर प्रभु धैर्य रूपी कंबल ओढ़ कर किसी वृक्ष के नीचे समाधि लगाए रहते थे.. इसी तपस्या के दौरान उन्होंने जिवों की स्थिति और कर्मानुसार गति के संबंध में जिन विचारों की प्रेरणा दी वह बारह भावना के नाम से प्रसिद्ध है.
1. अनित्य .2 अशरण 3. संसारा नुप्रेक्षा 4. एकत्व 5. अन्यत्व 6.अशुचि 7.आसृव 8.निर्जरा 9.संबर 10.लोक 11.बोधिदुलभ 12. रत्नमय भावना..इस प्रकार महावीर स्वामी ने अष्टांग योग अर्थात यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान की साधना करते हुए योग की परम स्थिति ” केवल- ज्ञान ” प्राप्त किया।
योगियों के नाथ कहलाए। यहां यह समझ लेना आवश्यक है वर्तमान समय में केवल शारीरिक व्यायाम या किसी प्रकार की एक सिद्धि को प्राप्त कर लेना योग के रूप में प्रचारित है जो योग का एक भाग अवश्य है परंतु योग का परम लक्ष्य नहीं है।अपितु योग का परम लक्ष्य तो हे अंतर की वृत्तियों पर विजय प्राप्त करके केवल्य को पा लेना है। जो महावीर स्वामी ने प्राप्त किया।
भगवान श्री महावीर स्वामी ने संपूर्ण विश्व में अहिंसा परमो धर्म का उपदेश प्रदान कर जैन धर्म का प्रसार कर तीर्थंकर की पदवी को प्राप्त किया । महावीर जयंती के उपलक्ष में इतना कहना चाहूंगी भगवान महावीर स्वामी द्वारा दिए गए सिद्धांत- सत्य ,अहिंसा, अपरिग्रह, आचोर्य, ब्रह्मचर्य वर्तमान परिवेश में और भी अधिक प्रासंगिक हैं। आज हम जिस महामारी से जूझ रहे हैं वह भी कहीं ना कहीं हिंसा का ही परिणाम है.. अहिंसा एवं अपरिग्रह का पालन करके तथा प्रेम और सौहार्द के मार्ग से ही हम वर्तमान युग की चुनौतियों आर्थिक मंदी, आर्थिक असमानता , महामारी ओर युद्ध जेसी विनाशकारी परिस्थितियों को टाल सकते हैं। आज लॉक डाउन में भी तो हम सीमित वस्तु एवं साधनों के साथ निर्वाह कर ही रहे हैं आवश्यकताओं की पूर्ति तो हो ही रही है.. बस विलासिताओं पर ही तो ब्रेक लगा है। परंतु यह विलासितायें जीवन से अधिक महत्वपूर्ण तो नहीं है। यह हमे आज समझ आ रहा। परंतु यह समझ परिस्थिति जन्य होते हुए ही क्षणिक न रह कर। जीवन में चिरस्थाई बने यही महावीर जयंती पर शुभकामना है।
अहिंसा धर्म प्रवर्तक भगवान महावीर स्वामी के जन्म कल्याणक के पावन अवसर पर आप सभी को शुभकामनाएं एवं बधाई।
( लेखिका एमटेक डिग्री प्राप्त इंजीनियर है )