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वाेटर ने तो विधायक चुने थे ये तो घोड़े निकले

 

    ( आकाश माथुर )

 

आज कल कहा जाता है दाग अच्छे हैं। दाग से लोग खुश हो जाते हैं। ऐसा ही एक दाग मध्यप्रदेश की 75 प्रतिशत आबादी ने 28 नवंबर 2018 को अपनी उंगली पर लगवाया। इस दाग को दिखाते हुए लोगों ने सेल्फी भी ली और उसे वायरल किया। दूसरों को दाग लगवाने प्रेरित भी खूब किया गया, लेकिन हुआ क्या। जिनके लिए दाग लगवाए वो तो घोड़े निकले। ऐसा वोटर ने कभी नहीं कहा कि वो घोड़े हैं। ये तो उन्हीं की तरह दूसरी पार्टी के लोग कह रहे हैं। भाजपा के लोग कांग्रेस के विधायकों और कांग्रेस के लोग भाजपा के विधायकों को ऐसा कह रहे हैं, लेकिन इसमें वोटर का क्या कसूर? उसने तो तीन हजार से ज्यादा प्रत्याशियों में से 220 को चुना था। उन्हें उस रूप में चुना गया था…जैसे वे थे। यदि वे कांग्रेस के देश द्रोही, सेक्युरल और विकासवादी जो भी थे। या वो भाजपा के देशभक्त, लोगों को वर्ग में बाटने वाले या जो भी थे। उन्हें वैसे ही वोटरों ने पसंद किया था। अब वो अकेला घोड़ा तय कर रहा है कि उसे क्या करना है। वोटर कहां हैं। इस सब में उसकी क्या भूमिका है। महज न्यूज चैनल, अखबार और सोशल मीडिया पर देख रहा है कि उनका घोड़ा… माफी चाहुंगा विधायक कहां है। दिल्ली, भोपाल, जयपुर, बेंगरूल या सीहोर। पता नहीं कहां तक चरने निकल गया या किसी अस्तबल में कैद है। उन्हें चिंता है अपने उंची नस्ल के घोड़े की। साथ ही इस टूटती अर्थ व्यवस्था के बीच खर्चीले चुनाव की। साथ ही गिरती मौलिकता और नैतिकता की। अरे, मैं फिर भूल गया। घोड़े कहां है यहां। हां, तो बात विधायकों की हो रही है। वो कह रहे हैं हम छुट्टी मना रहे हैं। यहां कोरोना के कारण बच्चों की परीक्षा निरस्त कर दी गई है और आप एक साथ कहीं 20, कहीं 50 और कहीं 100 छुट्टी मना रहे हैं। को-रोना नहीं आता।

खैर घोड़ों की बात बहुत हुई। अरे माफी चाहूंगा। विधायकों की बात बहुत हुई। बात तो वोटरों की हो रही है। एक वोटर जो किसान है ट्रेक्टर से रिसोर्ट के पास से निकल रहा था। बिना किसी गलती के पुलिस उसे डांट रही थी। बहुत डांटा। उसे समझ भी नहीं आया उसे डांटा क्याें जा रहा है। आपकाे भी समझ कहां आएगा। मैं बताता हूं। हुआ यूं कि एक रिसोर्ट में कुछ विधायकों को टहराया जाना था। वहीं की घटना है। ये सब सरकार बनाने, गिराने, बचाने और राज्य सभा सांसद बनाने की ड्रामें का हिस्सा है। माफी ये हार्स ट्रेडिंग है। अपने घोड़ों को दूसरे व्यापारियों से बचाने अस्तबल में छिपाना। यह हार्स ट्रेडिंग का हिस्सा है। अब ये सब चल रहा था। एक वोटर जिसने इन्हीं में से एक घोड़े, माफी विधायक को चुना था। उसको, इनकी सुरक्षा के नाम पर डराया जा रहा था। पुलिस डरा रही थी और वोटर डर रहा था। इस वोटर के पैरों में कोई हॉर्स गिरा भी हो तो बड़ी बात नहीं। खैर उसको डराया, क्योंकि वो वाेटर था। अब डराया किसने। ये सवाल होगा। तो जवाब है पुलिस के आरक्षक ने डराया। पर उसने क्यों डराया। उसके साहब ने कहा था। वो भी वोटर हैं, लेकिन दो मिनट बाद फिर कुछ हुआ। पुलिस के उस आरक्षक ने एक महंगी कार को उस रिसोर्ट में जाने से रोका। उसे इसके भी आदेश दिए गए थे, लेकिन वो ट्रेक्टर वाला डर गया था। ये महंगी कार से थे। ये नहीं डरते। पीछे की सीट से एक मुंडी निकली। एक घोड़े की। आपको लगा ऐसा कहुंगा। नहीं मैं बार-बार माफी क्यों मांगू। अब आप ही सोचते रहना घोड़े लिखना है या विधायक। मैं तो विधायक ही लिखुंगा। एक विधायक की मुंडी निकली उसने दबंग आरक्षक से कहा। क्यो रे पागल है क्या। ये सुन दबंग आरक्षक बिल्ली बन गया। वो …से नहीं विधायक से डर गया। मैंने नहीं लिखा घोड़ा। अाप सोंचो मेरा क्या। कुछ भी सोचो। पर ये आरक्षक जिसे इसलिए डांटा गया क्योंकि वो निर्देश का पालन कर रहा था। गलत है न। खैर पुलिस को डांटने और डांट खाने का भरपूर अभ्यास है। पर वो आरक्षक भी वोटर है। क्या उसने इसीलिए वोट दिया था। उसके साहब भी आ गए। एक बार और आरक्षक को डांटा। सुनता रहा वोट जाे दिया था। अब बारी आई मेरी कोम की। वो भी वोटर है। उनको धकेलने पुलिस आई। अब ऐसा क्यों किया जा रहा था पता नहीं। पत्रकारों की इतनी हैसियत ताे नहीं कि महंगी नस्ल का कुछ खरीद सकें। हां, पर खुरापाती हैं, लोपड़ी की तरह। पुलिस अब इन्हें डराने और धकेलने आई। डरे नहीं, पर धक्का खा लिया। एक बार खाया धक्का, फिर दूसरी बार खाया। खाना ही है क्योंकि पत्रकार ज्यादा जागरुक वोटर हैं। सजा तो मिलेगी। वोट दिया। लोगों को प्रेरित किया। दो बार मैं सजा पूरी हुई। तीसरी बार फिर एसआई साहब आए। इस बार मामला बिगड़ गया। इस बार लोमड़ी घुर्राई और बिल्ली घबराई। अरे यार मैं क्या कह रहा हूं। बात पत्रकार और पुलिस की है। तो पत्रकार गुस्सा हुए और पुलिस नरमाई। पत्रकार चिल्लाए और पुलिस समझाई। फिर पुलिस के बड़े साहब आए। वो चिल्लाए, अपने ही पुलिस के जवानों पर। ये सजा भी पुलिस को मिलनी थी। वोट दिया था ना। पुलिस तो लगातार सजा भुगतेगी। अस्तबल की सुरक्षा के नाम। सरकारी कर्मचारी, व्यापारी सभी सजा भुगत रहे हैं। वो वोटर जो घंटो लाइन में खड़ा था। अभी भी लाइन में खड़ा है। खड़ा रहेगा। हां एक बात और जिले के दो सबसे बड़े अधिकारी शेर खान और बब्बर शेर भी मिलने गए थे। अस्तबल, सारी रिसोर्ट। पर उन्हें भी विधायकों से मिलने नहीं दिया। कितना बुरा लगता है। हम दिन भर वोटरों को दरवाजे से भगाते हैं। जब खुद को दरवाजे से भगया जाए। खैर बे-इज्जत तो हो गए न। क्योंकि उंगली पर दाग तो आपने भी लगवाया था साहब। सजा तो मिलनी थी।

एक और रोचक बात… ये विधायक जो कैद हैं। ये भी वोटर हैं। ये इनकी सजा है। जिसे भले ही ये मजा कहें। ऐसे दबंग विधायक जो बंदी बना ले। बंदी बने हैं। बल्ला चलाने वाली की पत्नी को एक घंटे अपने पति से मिलने इंतजार करना पड़ा। दयालू को यहीं रखा गया है। जिनसे कई लोग डरते हैं। और तो और ऐसे विधायक जिनके घर 10 किमी, 20 किमी और 30 किमी दूर हैं। वो भी यहां बैठे हैं। खिड़कियों से झांकने में भी डरते हैं। वोटर हो सजा तो मिलेगी।

–अब हार्स ट्रेडिंग भी समझे

जब एक पार्टी विपक्ष में बैठे हुए कुछ सदस्यों को लाभ का लालच देते हुए अपने में मिलाने की कोशिश करती है, जहां यह लालच पद, पैसे या प्रतिष्ठा का हो सकता है, इस किस्म की विधायकों की खरीद फरोख्त को पॉलिटिक्स में हॉर्स ट्रेडिंग कहा जाता है। ऐसा उन स्थिति में होता है जब किसी भी एक पार्टी को सरकार बनाने के लिए बहुमत न मिला हो और उसे बहुमत सिद्ध करने के लिए बाहर से मदद चाहिए। इस लटके हुए फैसले को अपने पक्ष में मोड़ने के लिए सभी पार्टियां यह कोशिश करती हैं कि किसी तरह से विपक्षी, निर्दलीय या अन्य छोटी पार्टियों के विधायक उन्हें समर्थन दे दें और उनकी सरकार बन जाए. इसके लिए साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग किया जाता है। चालाकी, पैसा, लाभ के पदों की वजह से यही हॉर्स ट्रेडिंग कहलाती है।

इस शब्द का प्रयोग पहले वाकई में घोड़ों की खरीद फरोख्त के संदर्भ में ही होता था। करीब 1820 के आस-पास घोड़ों के व्यापारी अच्छी नस्ल के घोड़ों को खरीदने के लिए बहुत जुगाड़ और चालाकी का प्रयोग करते थे. व्यापार का यह तरीका कुछ इस तरह का था कि इसमें चालाकी, पैसा और आपसी फायदों के साथ घोड़ों को किसी के अस्तबल से खोलकर कहीं और बांध दिया जाता था।

–भारतीय पॉलिटिक्स में इसका प्रयोग कब से

माना जाता है कि भारत की राजनीति में इस शब्द और संदर्भ का प्रयोग 1967 से होता चला आ रहा है। 1967 के चुनावों में हरियाणा के विधायक गया लाल ने 15 दिनों के अन्दर ही 3 बार पार्टी बदली थी. आखिरकार जब तीसरी बार में वो लौट कर कांग्रेस में आ गए तो कांग्रेस के नेता बिरेंद्र सिंह ने प्रेस कांफ्रेस में कहा था कि ‘गया राम अब आया राम बन गए हैं।
हालांकि भारत में इस दलबदली को रोकने के लिए कानून भी बनाया गया था। 1985 में राजीव गांधी ने संविधान के 52वें संशोधन में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया था। इसके हिसाब से विधायकों को अपनी पार्टी बदलने की वजह से पद से निष्कासित किया जा सकता है। फिलहाल कर्नाटक के मामले में इस कानून के हिसाब से किसी भी पार्टी के लोगों की संख्या उनकी पार्टी की कुल संख्या के दो-तिहाई से अधिक नहीं हो सकते। ऐसा होने पर सभी को अयोग्य ठहराया जा सकता है।

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