जेएनयू : एक यूनिवर्सिटी की हत्या की प्रक्रिया
( जे. सुशील )
बहुत कुछ कहने को रह नहीं गया. अब किसी भी बात पर दो धड़े बन जाते हैं और कोई किसी की बात मानने को तैयार नहीं होता चाहे आप जो कह लीजिए. ऐसे में संवाद, बहस ये सब बेमानी हो चुके हैं.
लेकिन चूंकि मैं जेएनयू को लेकर इमोशनल था, हूं और रहूंगा इसलिए कुछ कहना बहुत ज़रूरी है. बहुत सारी सूचनाएं हैं. लोगों के अपने पक्ष हैं. सब लोग अपने अपने हिसाब से सही हैं. और अपने अपने हिसाब से गलत हैं. यहां तक कि जो बीच में हैं वो पोजीशन भी बीच की नहीं है. इसलिए सिलसिलेवार जेएनयू के छात्रों से बातचीत और कई संघी, लेफ्टिस्ट और बीच के लोगों की पोस्ट पढ़ने के बाद ये लिख रहा हूं.
जेएनयू में जो कुछ हुआ वो स्वत स्फूर्त नहीं था. उसकी एक पृष्ठभूमि तैयार हुई थी लेकिन ये पृष्ठभूमि जब तैयार हो रही थी तब उसे रोका क्यों नहीं गया इसका जवाब कोई नहीं देगा. हुआ क्या था.
पिछले तीन से चार महीने हो गए हैं. जेएनयू में क्लासेस ठीक से नहीं हो रही हैं. हर दिन कोई न कोई विरोध प्रदर्शन हो रहा है. सरकार के खिलाफ प्रशासन के खिलाफ, फीस बढ़ोतरी आदि आदि. इसमें नुकसान उन छात्रों का है जो पढ़ने आए हैं.
जेएनयू में गुंडों की मारपीट से एक दिन पहले कई छात्रों को जेएनयू छात्र संघ ने रजिस्ट्रेशन करने से रोका और जब प्रशासन ने ऑनलाइन कर दी प्रक्रिया तो सर्वर उखाड़ लिया गया.
इस मुद्दे पर लेफ्ट विंग (मूल रूप से जेएनयू छात्र संघ) और दक्षिणपंथी छात्र समूहों के बीच झड़प हुई. लेकिन किसी मीडिया में ये बात उस तरह से नहीं आई क्योंकि इसमें सुनियोजित मार पीट की बजाय माहौल गर्म होने में हुई मारपीट थी.
अब यहां से मामला खराब होना शुरु होता है. क्या प्रशासन को तब जेएनयू छात्र संघ या लेफ्ट के जिन छात्रों ने सर्वर उखाड़े उन पर कार्रवाई नहीं करनी चाहिए थी. जो वीसी पहले पुलिस को बुला चुके हैं कैंपस के अंदर क्या वो चुनिंदा छात्रों को इस तरह की कार्रवाई के कारण गिरफ्तार नहीं करवा सकते थे. सर्वर उखाड़ना एक अपराध है.
ये नहीं हुआ. तो हुआ क्या. झड़प के बाद टीचरों ने दूसरे दिन शांति मार्च निकाला तब तक दक्षिणपंथी छात्र तैयार हो चुके थे और उन्होंने बाहर से लोग बुलाए और फिर जो हुआ वो दुनिया ने देखा.
वीडियो में बहुत साफ है कि बाहर के लोग आए नकाब पहन कर उन्होंने चुन चुन कर टीचरों और छात्रों को निशाना बनाया और उन्हें पुलिस की शह मिली हुई थी. ये लाठी भाले लिए हुए लोग जब कैंपस से निकले तो सामने खड़ी पुलिस ने इन्हें रोका नहीं.
उसके बाद तो जो आईटीसेल का खेल है वो होने लगा कि वामी गुंडों ने मारा आदि आदि. ये सब बाद की बातें हैं.
मूल बात ये है कि जेएनयू एक विश्वविद्यालय के रूप में खत्म हो चुका है. जिसके लिए वामपंथी छात्र संगठन और दक्षिणपंथी छात्र संगठन दोनों ज़िम्मेदार हैं. वामपंथी छात्रों को आंदोलन करने के अलावा कोई और काम है नहीं. दक्षिणपंथियों के पास विचार की जगह नहीं है और अब सरकारी समर्थन है तो वो हिंसा का प्रयोग कर रहे हैं.
दोनों के अपने अपने समर्थक हैं और विरोधी हैं. मैं अब इन सबसे चट गया हूं. इन बहसों का इन पोस्टों का कोई मतलब नहीं रह गया है.
ये मातम का दिन है. एक यूनिवर्सिटी की हत्या में उन सभी शिक्षकों का योगदान है जो फीस माफी से लेकर तमाम मुद्दों पर राजनीति करते रहे चाहे वो राजनीति वाम की हो या दक्षिण की.
इन शिक्षकों ने अपनी पारियां खेल लीं कैंपस में और ये अपने सर पर ये दाग हमेशा के लिए लेकर जाएंगे कि जब जेएनयू बर्बाद हो रहा था तो ये सब कैंपस में अपनी अपनी रोटी सेंक रहे थे.
मुझे अब अपने प्यारे कैंपस के लिए बस रोना आ रहा है. और कुछ नहीं.
लोग जान लें कि भारत में अब कोई ऐसा कैंपस नहीं बन पाएगा जहां विचारों की आज़ादी हो. और इस आज़ादी को खत्म करने का काम लेफ्ट की अगुआई में हुआ है. दक्षिण ने बस इसकी फसल काटी है.
मुझे आम लोगों से भी कोई उम्मीद नहीं है. मैंने मुनिरका के आम लोगों को जेएनयू को गरियाते देखा है जो ये नहीं समझते कि जब जेएनयू बंद हो जाएगा तो वो भूखे मरेंगे.
जेएनयू को हमेशा के लिए बंद कर दिया जाना चाहिए और ये बात मैं पूरे होशो हवास में कह रहा हूं. जब विचारों की बात करनी नहीं तो यूनिवर्सिटी की ज़रूरत क्या है. मशीनी मानव ही बनना है तो बाकी यूनिवर्सिटियां क्या बुरी हैं.
आम लोगों को पढ़ने से मतलब भी नहीं है. वो तो वाट्सएप फेसबुक में मगन है. लगे रहिए. जब आपके बच्चे बड़े होंगे और खुद सोचने के काबिल नहीं होंगे तब आप पूछिएगा खुद से कि आपने कैसा देश दिया है अपने बच्चों को.