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बाप रे…! इन आचार्य श्री को ठंड नहीं लगती ?

 

   ( कीर्ति राणा )

 

मध्यप्रदेश। घना कोहरा ऐसा कि लॉन में पेड़ बनने की राह पर बढ़ रहे घनेरे पौधों की पत्तियों से भी ठंडी बूंदे टपक रही थी। पेपर उठाकर तेजीसे दरवाजा बंद कर दिया कि कहीं पीछा करता कोहरा अंदर ना आ जाए। एक लाइट का उजाला तो अपर्याप्त लग रहा था, दूसरी भी ऑन कर दी । अब तेज रोशनी बिखर गई थी। महारानी ने अखबार का पेज पलटा और बरबस मुंह से निकला बाप रे…! इन आचार्य श्री को ठंड नहीं लगती ? जिस खबर फोटो पर उनकी नजर टिकी थी , वह आचार्य विद्यासागरजी के इंदौर की और बढ़ते कदम से जुड़ी थी। हम गरम कपड़े पहने, बंद कमरे में बैठे हुए भी कोहरे से गिरे तापमान की सिहरन महसूस कर रहे थे और वह 74वर्षीय  संत अपने 31 शिष्यों के साथ पहाड़ों के बीच घाट की चढ़ाई पार करते चले आ रहे थे।रविवार को जब बायपास स्थित बिंजालिया फार्म हाउस से प्रारंभ होने वाले मंगल जुलूस में उनकी अगवानी करते हजारों समाजजन गुरुवर की जय जयकार से आसमान गुंजाएंगे, तब भी रास्तों के दोनों तरफ खड़े अन्य समाज के लोग इन निर्वस्त्र मुनियों-आचार्य को देखते हुए यही सोचेंगे कि ये किस हाड़-मांस के बने हैं कि ठंडी हवाएं इनसे घबरा कर भाग रही हैं।
चार दिन पहले बलवाड़ा के सरस्वती शिशु मंदिर में विराजे थे। उस दिन भी सुबह इतनी ही ठंडी थी।आचार्य नमोस्तु कहने-दर्शन को आतुर गरम कपड़ों में लिपटे सैकड़ों श्रद्धालु उस कमरे में झांकने, एक झलक पाने को आतुर थे।तेज चलती ठंडी हवाएं खुले गालों पर आलपिन की तरह चुभ रही थी।कुछ अनुयायियों के अनुरोध पर आचार्य खरामा-खरामा सीढ़िया चढ़ कर कमरे के ऊपर छत पर लकड़ी के पटिये पर जाकर बैठ जरूर गए, जो धूप थी वह भी ठंडी हवाओं से भयभीत थी या शायद सूर्य भी आचार्य की तप-साधना से भयभीत ही रहा होगा। लिहाजा धूप, धूप ना होकर रोशनी की औपचारिकता पूरी कर रही थी।
दिगंबर जैन धर्म की मान्यता तो यही है कि आचार्य भगवन, मुनिजन इसलिए वस्त्र त्याग करते हैं कि दशों दिशाएं ही उनके वस्त्र होती हैं, इसीलिए उन्हें दिग+अंबर भी कहते हैं।तप-साधना-संयम से भले ही ये दिशाएं वस्त्र बन जाती हों लेकिन खुली आंखें तो यही देखती है कि परिग्रह का त्याग करने वाले इन संतों को तेज धूप और बर्फीली हवाएं इस लिए तो नजरअंदाज नहीं करती होंगी कि ये आत्म कल्याण और समाज-देश के भले की भावना से निकले हैं इसलिए इन पर कृपा रखी जाए।
भरी दोपहर वे सीढ़ियों से उतरे और अपने बाल ब्रह्मचारी शिष्यों के साथ गंतव्य की और बढ़ चले।इसे दोपहर कहना भी मजाक ही होगा, न सूर्य की तपन ना हवाएं ठिठकी, धूप भी जैसे बाहर सुखाने के लिए छोड़े कपड़ों की तरह ठंडी -गीली सी ही थी।जय-वंदन के उद्घोष भी माहौल में गर्माहट पैदा नहीं कर रहे थे। धूल और ठंडी हवाओं से बचाने के लिए आचार्य-मुनियों को तीन तरफ से पोलीथिन के घेरे में लेने के बाद भी हवाएं उन श्रद्धालुओं की तरह जिद्दी हो रही थी जो हर हाल में आचार्य श्री के दर्शन सामने से बिल्कुल नजदीक जाकर करना चाहते हैं।पच्चीस साल निवेदन करने के पश्चात 1999 में उनका आगमन हुआ था औरगोम्मटगिरी पर चातुर्मास किया था, सारी व्यवस्थाएं गोम्मटगिरी ट्रस्ट अध्यक्ष (स्व) बाबूलाल पाटोदी के नेतृत्व में समाजजनों ने संभाली थी। क्या बदला इन दो दशक में? आचार्य की काया पर हावी हुआ बीस वर्षों का बोझ साफ नजर आता है।बढ़ती उम्र के चलते उनकी गर्दन कुछ अधिक झुक गई है, जब वे चलते हैं तो झुकी गर्दन-नीची निगाहों से आभास होता है कि जैसे वे आत्मावलोकन कर रहे हों कि पचास साल की तप साधना में रत्नत्रय (सम्यक दर्शन-ज्ञान-सम्यक चारित्र्य) की कसौटी पर खरे उतर सका या नही। नंगे पैर वो आगे बढ़ते जा रहे थे, पीछे था सैकड़ों श्रद्धालुओं का हुजूम कुछ नंगे पैर भी थे तो बाकी जूते-चप्पल पहने थे। इन लोगों को यह भी आभास नहीं था कि वे आचार्य वाले मार्ग पर चल तो रहे हैं पर क्या वाकई उनके पदचिह्नों पर चल सकेंगे।
यदि वे आचार्य विद्यासागर नहीं हुए होते तो कर्नाटक के जिले बेलग्राम के सदलगा गांव में जन्मा मलप्पा अष्टगे और श्रीमती श्रीमंती के पुत्र विद्याधर आज 74 वर्ष के गृहस्थ होते। बहुत संभव है कि गांव के उन बुजुर्गों में से एक होते जो किसी विभाग से सेवानिवृत्त होकर पेंशन के भरोसे जिंदगी गुजार रहा हो या परिवार की उपेक्षा का शिकार होने वाले बुजुर्गों की तरह ईश्वर से उठा लेने की कामना कर रहा हो।लेकिन वे ऐसे आचार्य विद्यासागर हैं जो अपना परिवार, ऐशो आराम की जिंदगी, मोह-माया त्याग कर पथरीले मार्ग पर घुटनों में दर्द, पैर में छाले की असहनीय पीड़ा को स्मित मुस्कान बिखेरते आगे बढ़ते जा रहे हैं ।इस नग्नपाद पदयात्री की आंखों में सपना है जेलों में बंद हजारों हजार कैदियों के साथ ही हस्त करघा से गांवों को स्वावलंबी बना कर जीवन बदलने का, गौ हत्या रोकने के साथ ही गौ पालन की अलख जगाने, हिंदी के साथ भारतीय भाषाओं को सम्मान दिलाने, पूर्णायु के माध्यम से आयुर्वेद को खोया सम्मान दिलाने और प्रतिभा स्थलियों के माध्यम से बेटियों को संस्कारित जीवन की राह सौंपने का।

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