हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे पर हंगामा
दिल्ली। शयर फैज अहमद फैज की नज्म हम देखेंगे लाज़िम है कि हम भी देखेंगे…पर हंगामा मचाया जा रहा है। फैज की नज्म करीब 40 साल से अधिक समय से कई मंचो से बोली सुनी जाती रही है,लेकिन अब तक मजहबी वर्ग से नहीं जोडी गई और न ही किसी ने अपित्त ली। अब अचानक से आईआईटी कानपुर के विद्यार्थियों ने सीएए का विरोध करने फैज की नज्म का इस्तमाल किया तो इसको हिन्दु समुदाय का विरोधी ठहराया जा रहा है इसकी शिकायत भी की गई है। शिकायत की जांच आईआईटी कानपुर प्रशासन कर रहा है। जांच के बाद दोषियों पर कार्रवाही की बात कही जा रही है। इधर,देश के कई शयर और कवियों ने कहा कि सहित्यकारों को सियासत में क्यों घसीटा जा रहा है? फैज की नज्म को पढना और समझना जरूरी है। जो समझते वो जानते है कि इसमें मजहबी बात ही नहीं है।
कब और क्यों लिखी फैज ने हम देखेंगे…
साल 1977 में पाकिस्तान में सेना ने तख्तापलट किया और सेना प्रमुख जिया-उल-हक शासक बन गया। इस दौरान आवाम पर काफी आत्याचार हो रहा था,हर वर्ग को कई तरह से प्रताडित किया जाता था। 1979 में पूर्व पाकिस्तानी प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दे दी गई। जुल्फिकार अली भुट्टो से शयर फैज़ अहमद फैज़ का काफी अच्छे तलुकात थे,फैज इससे पहले भी तानाशाह शासक के शासन के खिलाफ काफी कुछ लिखते रहे थे। लेकिन भुट्टो को फांसी के बाद तो फैज बहुत दूखी हो गए और उन्होंने हम देखेंगे…नज्म लिखी। उनकी यह नज्म नौजवनों में काफी फैमस हो गई और आंदोलन में बोली जाने लगी। उस समय पाकिस्तान शासक जियाउल हक ने फैज की नज्म हम देखेंगे… और काले वस्त्र पर पंबदी लगा दी। जो भी इस नज्म को गाता उसे जेल में ठूंस दिया जाता था।
— इकबाल बानो ने जब मंच से बोला ‘हम देखेंगे,
साल 1985 में जब पाकिस्तान में शासक जिया-उल-हक की तानाशाही ने सारी हदें पार कर दी थी उस दौर में लाहौर के अलहमरा ऑडिटोरियम में गायक इकबाल बानो ने काली साडी पहन कर फैज की नज्म को गाया..कुछ देर में वहां मौजूद 50 हजार से अधिक लोगों ने उनके साथ फैज की नज्म को गाना शुरू कर दिया। उस दिन के बाद जब भी आंदोलन या प्रदर्शन हुए फैज की नज्म को आवज बनाई।
हम देखेंगे..
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो