— जन्मदिन मुबारक जनाब ‘अकबर इलाहाबादी’
(शालिनी रस्तोगी)
जज सुनकर लगता है जैसे कोई बहुत गंभीर व्यक्ति जिसके चहरे पर हंसी न दिखाई दें,जिसे दुनिया के कई एहसासों से जुदा बनाया गया हो। लेकिन एक ऐसा जज भी हुआ कि उन्होंने यह धारणा ही बदल दी। जज होते हुए भी उन्होंने हर एहसास को कुछ इस अंदाज में बयां किया कि हर कोई आहं और वाह कर बैठा। यहां बात हो रही है 16 नवम्बर 1846 को इलाहाबाद के पास बारा में जन्में सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी ‘अकबर इलाहाबादी’ की। उनके पिता के नाम सैयद तफ्फज़ुल हुसैन था, आज उनका 173 वां जन्मदिन है।
दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ ।
बाज़ार से गुज़रा हूँ, ख़रीदार नहीं हूँ ।।
अकबर ने प्राथमिक शिक्षा घर में हुई। उन्होंने 15 साल की उम्र में अपने से दो या तीन साल बडी उम्र की लड़की से शादी की थी और जल्द ही उन्की दूसरी शादी भी हुई। दोंनो पत्नीयों से अकबर के दो-दो पुत्र थे। अकबर ने अदालत में बतौर सरकारी कर्मचारी कार्य शुरू किया था लेकिन उनका अध्ययन और ज्ञान की वजह से उन्हें सेशन जज के पद पर नियुक्ति दी गई। उनका निधन 9 सितंबर 1931 में हुआ।
दुनिया में रहते हुए हुए भी दुनियावी जंजालों से मुक्त रहने की सूफियाना तबीयत वाले सय्यद अकबर हुसैन रिज़वी को हम ‘अकबर इलाहाबादी’ के नाम से जानते हैं।
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम
वो क़त्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती
जैसे चुटीले अश’आरों को लिखने वाले अकबर इलाहावादी एक बहुत ही मिलनसार व्यक्ति थे, उनकी जिंदादिली उनकी शायरी में बारीकी से बुने गए हास्य-व्यंग्य में झलकती है-
शेख जी घर से न निकले और लिख के दे दिया,
आप बी.ए. पास हैं तो बंदा बीबी पास है|
ग़ज़ल, नज़्म, रुबाई या क़त , उनका समाज सुधारक रूप सबमें झलक जाता है| उनकी बारीक निगाह और पैनी कलम से जीवन का कोई पहलू नहीं बच पाया है|
पाकर ख़िताब नाच का भी जौंक हो गया,
‘सर’ हो गए तो ‘बाल’ कभी शौक हो गया|
इलाहबाद कोर्ट में सेशन जज के पद पर आसीन तथा ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘खान बहादुर’ के ख़िताब से सम्मानित अकबर इलाबादी ने अपनी शायरी में बड़ी बेबाकी से अंग्रेजों की गुलामी करने वालों की खिंचाई की है|
इश्क के इज़हार में हर चंद रुसवाई तो है,
पर क्या करूँ अब तबीयत आप पर आई तो है|
माना कि उनकी मुहब्बत भरी शायरी बेजोड़ है पर उस जमाने में यह आज़ाद ख़याली का बयाँ काबिले तारीफ़ है| जिस परदे की हिमायत करते हुए आज भी कट्टरपंथी औरतों को बुर्के और घूँघट में छिपा कर रखना चाहते हैं उस पर्दा प्रथा का विरोध तो अकबर इलाहाबादी डेढ़ सौ साल से भी पहले कर रहे थे|
बिठाई जाएँगी परदे में बीबियाँ कब तक,
बने रहोगे तुम इस मुल्क में मियाँ कब तक?
कमाल की बात तो यह है कि उनकी रचनाएँ आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं| नौकरशाही, अफसरशाही, चापलूसों की जमकर खबर लेने वाले शायर क्लर्कों से लेकर अफसरों तक किसी को सुनाने से नहीं चूकते थे. भाषा को भारी शब्दों के वज़न तले दबाने की जगह अकबर ने अपनी बात को लोगों की अक्ल तक पहुँचाने के लिए हर मुनासिब भाषा चाहे वह इंग्लिश ही क्यों न हो, के शब्दों का बेझिझक प्रयोग किया है , एक बानगी देखिए
कौम के ग़म में डिनर खाते हैं हुक्काम के साथ
रंज लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ ।
अब इस शानदार शायर को शराब का शौक था कि नहीं इसका कोई रिकॉर्ड नहीं मिलता पर हर मुमकिन विषय पर अपनी कलम चलाने वाले इस शायर की पहचान गुलाम अली और अनेक गायकों द्वारा गाई गई उनकी ग़ज़ल ‘हंगामा है क्यों बरपा’ से बनी हुई है। हम तो बस इतना ही कहेंगे कि ऐसे शायर की हर दौर में दरकार है जिसकी जिंदादिल कलम किसी तोप के मुक़ाबिल खड़े होने का माद्दा रखती हो –
खींचो न कमानों को न तलवार निकालो
जब तोप मुक़ाबिल हो तो अखबार निकालो
हरदिल अजीज़ शायर अकबर इलाहाबादी के जन्मदिन पर उन्हें याद और सलाम करते हुए इतना ही कहेंगे कि ज़रा उनके दीवानों के पन्ने तो पलटो, वो दिल में भी आएँगे और समझ में भी ..
बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
तू दिल में तो आता है, समझ में नहीं आता।