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हे..ईश्वर फिर कोई ऐसे बदनाम न हो…

 

कई बार समाज में कुछ ऐसी घटनाए घट जाती है जिससे बिना कसूर कोई बदनाम या दोषी हो जाता है। खासतौर वो जगह जहां वारदात या घटनाएं होती है। सवाल यह कि जगह का क्या दोष उसने तो कोई अपराध किया नहीं फिर भी वो गली,सडक,इलाका,भवन बदनामी का दंश सदियों तक झेलता है। साथ उस इलाके,गली या भवन में रहने वालो को भी इस बदनामी को बर्दास्त करना पडता है। कुछ ऐसी ही कहानी है बदनाम ढाबा…। यह आकाश माथूर द्वारा लिखी गई किताब मी-टू की पांचवीं कहानी है। इसकी समीक्षा वरिष्ठ पत्रकार शैलेश तिवारी ने की है। समीक्षा और कहानी को पढने के बाद तय किजिएगा कि भीड की आड में दअसल कौन लोग अपना मकसद पूरा करते है?

(कहानी समीक्षा बदनाम ढाबा..)

यही शीर्षक है..आज की अलोच्य कहानी का..। कहानी को पढ़ने के बाद हमारे युग के विशिष्ट और श्रेष्ठ गीतकार गोपाल दास नीरज, जिनकी हाल ही मे प्रथम पुण्य तिथि गुजरी है, का एक मशहूर शेर याद आ गया..।

हम तो बदनाम हुए इस कदर जमाने में ।
लगेंगी सदियाँ लोगों को हमे भुलाने में ।।

कितना सटीक बैठता है ये शेर इस विचार पर कि एन एच 1 का लैंड मार्क बना ढाबा मुफ्त ही बदनाम हो गया जमाने में…। कहानीकार ने इसे दो पत्रकारों के बीच की वार्ता को आधार बना कर कथानक के रूप मे लिखा है….। कथानक का प्रवाह उपमा की चट्टानों से टकरा कर शोर भी पैदा करता है और भटकाव भी देता है। हालांकि इन उपमाओं पर गौर करें तो नफरत की धीरे धीरे सुलगती अगरबती के धूंएं सी होती पीढीता की जिंदगी…उफ़… शब्द बौने हो जाते हैं… दर्द का हिमालय बयां करने में..। घटना प्रधान कथानक में आंदोलन की आड़ में अपराधियों के उद्देश्य पूर्ति को सरलता से रेखांकित किया गया है। आंदोलनकारी जिस तौर तरीकों पर अपना आंदोलन चला रहे होते है। उन्हीं तौर तरीकों में का अपराधी शामिल होकर उनके उद्देश्य को कलंकित कर जाते हैं। उन्हें मालूम ही नही हो पाता…। खास कर जब दस या उससे ज्यादा महिलाओं को उन परिस्थितियों से दो चार होना पड़ा जो दुखद होने से ज्यादा शर्मनाक है..। इनमें भी जब एक 63 वर्षीय महिला जघन्यता और बर्बरता की शिकार हो जाती है..तब दिल की हर धड़कन यही विचार करती है…का नैतिकता का पाठ दुनिया को पढ़ाने वाले… विश्व गुरु के पद पर प्रतिष्ठित होने की उम्मीद रखने वाले…देश में ऐसे हैवानों की मौजूदगी देश को अपने मकसद में कामयाब होने देगी? ….ख्यालों की खिचड़ी यूँ भी खड़कती है कि…. विकास की राह पर दौड़ लगाने का सपना दिखाने वालों ने… यहाँ के गण को… जाति, धर्म, वर्गों में बाँटकर… लंगडा कर चलने लायक भी नहीं छोड़ा…। गण (पीढ़ीता ) की पुकार तंत्र (पुलिस) सुनने को तैयार नहीं…। अफसोसजनक दर्द से बाबास्ता कराती कहानी के #me too को कौन सुनेगा..परिवार..समाज..देश..उसका तंत्र…गण का मन..या सिर्फ वो…जिसकी ये दुनिया है।

(कहानी बदनाम ढाबा)

मुरथल नाम तो आप सबने सुना होगा। शायद कुछ लोग भूल गए। ये वहीं मुरथल है जो बदनाम हो गया है। किसी दुष्कृत्य पीड़िता की तरह। जिसे घ्ाटना के कुछ समय बाद तक सहानुभूति मिलती है, लेकिन बाद में गिद्द इस पर गंदी नजरे डालने लगते हैं। अब मुरथल वैसा ही है।
पहले मुरथल प्रसिद्ध था। पराठो के लिए, यहां के ढाबों के लिए। अब यह सड़क, मुरथल, वो ढाबों और एक जाति कलंकित है। एक जाति जो देश की आजादी की लड़ाई में सबसे आगे थी। एक जाति जो देश की तरक्की में अमिट योगदान रखती है। एक जाति जो दिलेरी के लिए जानी जाती है। एक जाति जिसकी वफादारी के चर्चे देश-विदेशों में हैं अंदोलन की आड़ में कुछ अपराधी प्रवृत्ती और विक्षिप्त लोगों ने सबको एक बार में बदनाम कर दिया था।

मुरथल की घटना के बारे में जानने की जिज्ञासा के साथ मैंने अपने दिल्ली के दोस्त संजय शर्मा को फोन लगाया। संजय बड़ा सुलझा हुआ है और बड़े अदब से बात करता है। दिल्ली वाली गालियों से दूर और बराबरी का होने के बाद भी मुझसे आप ही कहता है। जैसे ध्ाृष्टराज को संजय ने पूरा वृतांत समझाया था। एक-एक चीज बताई थी। वैसे ही संजय शर्मा भी समझाता था। संजय से मैंने पूछा भाई ये मुरथल क्या है।
तो वो बोला…
मैं आपको बताता हूं। मुरथल के बारे में। विवादों से पहले यहाँ के ढाबों की एक अलग पहचान थी। जो अब भी बरकार है। यहाँ का एक ढाबा अपने लजीज खानें के लिए फेमस है। खास कर यहां के पराठे। जिनका स्वाद लेने लोग सैंकड़ों किलोमीटर का सफर तय करते हैं। यहां के खाने की खुशबु एनएच-1 से गुजरने वाले यात्रियों को अपनी ओर खींच लेती है।
इस ढाबे पर 12 तरह के पराठे बनाए जाते हैं।  यहां 150 से भी ज्यादा के व्यंजन तैयार होते हैं। दिल्ली और एनसीआर के लोग कभी लांग ड्राइव के बहाने तो कभी वीकेंड हैंगआउट के बहाने मुरथल के ढाबों तक पहुंच जाते हैं। देर रात दिल्ली-एनसीआर के युवा और फैमली यहां के दाल पराठा और लस्सी का आनंद लेने आते हैं। कई फिल्मी हस्तियों सहित माधुरी दीक्षित, राजकुमार संतोषी भी यहां के पराठों का स्वाद ले चुके हैं।
1956 में खुला था यह ढाबा।  ढाबों के लिए प्रसिद्ध मुरथल में इस ढाबे का एक अलग ही क्रेज है। मुरथल के जीटी रोड पर ट्रक ड्राइवरों के जरुरतों को देखते हुए इस ढाबे को खोला गया था। आज ढाबे पर करीब 4 से 5 हजार लोग रोजाना आते हैं। ये ढाबा अब कलंकित है। अंग्रेजी अखबार ट्रिब्यून में एक खबर छपी की जाट आंदोलन की आड़ में 10 महिलाओं के साथ कथित गैंगरेप हुआ। ट्रिब्यून में घटनास्थल को इसी ढाबे के पास हाईवे के दूसरी तरफ बताया गया था।  मुरथल में घटनास्थल के लैंडमार्क के तौर पर सबसे फेमस यही ढाबा हुआ। ये ढाबा ठीक वैसे ही कलंकित हुआ जैसे दुष्कृत्य के बाद कोई महिला। इस ढाबे का नाम देश भर में बदनाम हो गया। ये ढाबा अब मुरथल कांड वाला ढाबा बन गया।
मैं इस ढाबे पर पहुंचा तो उसने मुझे बताया। आप सोच रहे होंगे किसनेे। वहां की आबो हवा और कुछ लोगों ने। ढाबे के सामने घटनास्थल पर रेप पीड़िता के अंत:वस्त्र यानी इनरवियर मिले। सड़क किनारे दर्जनों अंत:वस्त्र पड़े थे। जो गवाह थे वहां हुई हैवानियत के। आंदोलन की आड़ में किए गए अपराध के। किस तरह घबराई महिलाएं भागी होंगी। कई महिलाएं परिवार के साथ थी। उनके तो पूरे परिवार के साथ ही दुष्कृत्य हुआ। उनके घरों में कितने दिनों तक मातम रहा होगा।
मैंने कहा संजय, 13 दिन से भी ज्यादा। 13 दिन किसी के मरने के बाद मातम होता है। किसी की मौत के बाद उसके घर में उसकी तस्वीर रख दी जाती है। जिस पर ताजी माला रोज चढ़ाई जाती है। उसके सामने दो अगरबत्ती और एक दीपक हमेशा जलता है। मरने वाले की विधवा एक कौने में बैठी होती है। लोग संत्वना देते है और चले जाते हैं, लेकिन दुष्कृत्य पीड़िता के घर में मरने वाले की तस्वीर की जगह खुद पीड़िता होती है। माला की जगह आरोपियों की छुअन का एहसास होता है। जो उसको जकड़ता है। अपने आप से हुई घृणा अगरबत्ती की तरह धीरे-धीरे जलती है। जिसकी आग दिखती नहीं और धुआ भी नहीं। उसकी दुर्गंध पीड़िता खुद महसूस करती है। और हां वो दीपक उसके आंसु जो निरंतर टपकते हैं। दीपक की लो की तरह। यहां सांतवना देने वाला कोई नहीं।
खैर बात उस घटना की हो रही थी। संजय से मैंने फिर पूछा और क्या हुआ।
संजय बोला, घटना के चश्मदीद एक सिख ट्रक ड्राइवर ने एक टीवी चैनल से बातचीत में कहा था कि महिलाओं से बदसलूकी हुई है। उपद्रवी भीड़ ने महिलाओं के कपड़े फाड़ दिए। इस ड्राइवर ने कहा कि यह घटना 1984 के दंगों से ज्यादा खतरनाक थी क्योंकि उस समय तो सिखों के साथ वारदातें हुई थीं, लेकिन इस दौरान सबके साथ बदसलूकी हुई। उन्होंने कहा कि हमने भागकर जान बचाई। ढाबे के बाहर भीड़ ने उत्पात मचाया। लोगों को भागते हुए देखा था।  इससे एक बात साफ थी कि आंदोलन या उपद्रव कुछ भी हो उसका फायदा अपराधी प्रवत्ती के लोग जरूर उठाते हैं। अंदोलन का उद्देश्य पूरा हो न हो अपराधियों का उद्देश्य पूरा हो ही जाता हैै। अपराधी जो किसी मकरद के लिए शुरू किए आंदोलन पर कालिख पोत जाते हैं।  संजय ने कहा। लोग बताते हैं, 10 से ज्यादा महिलाओं के साथ दुष्कृत्य हुआ है। पर मुझे लगता है ज्यादा के साथ हुआ है। मुझे तो यह भी पता चला था कि मुरथल में ढाबे के पास हुई घटना की शिकायत एक महिला ने पुलिस से की थी। जिसकी सुनी नहीं गई। महिला का कहना था कि 22 फरवरी को रात ढाई बजे उसका पति प्रशांत,भतीजे आरव के साथ कार से दिल्ली की और जा रहे थे। जब मुरथल में ढाबे के सामने पहुंचे तो उपद्रवियों की भीड़ ने हमारी कार पर लाठी, डंडे बरसाने शुरू कर दिए। मेरे पति व भतीजे को कार से नीचे उतार लिया। एक लड़का जिसकी उम्र महज 22-23 साल रही होगी हमारी गाड़ी में आया और मेरे साथ छेड़छाड़ करने लगा। मेरी उम्र करीब 63 साल है। मैं कार से निकली तो लड़कों ने मेरे कपड़े फाड़ना शुरू कर दिया। उसके बाद में सड़क पर भागने लगी। मेरे पति और भतीजा भी भाग रहे थे। मैं छुपने के लिए खेत की तरफ भागी जहां मेरे साथ दुष्कृत्य हुआ। जिसकी शिकायत मैंने की पर मेरी किसी ने नहीं सुनी।  संजय चुप हो गया… मैं भी कुछ देर तक चुप रहा। फिर मैंने पूछा फिर क्या हुआ… संजय बोला। फिर..फिर शायद बदनामी के डर से महिला के परिवार वालों ने ही मामले को दबा दिया। ऐसे कई अंदोलन और दंगे हुए। जिनका फायदा घाटिया लोगों ने बखुबी उठाया। जिसमें दर्जनों, सैंकड़ों यहां तक ही हजारों महिलाओं के साथ दुष्कृत्य हुए। जिन्होंने समाज, उपद्रवियों और परिवार के कारण कभी नहीं कहा मी-टू। मुरथल कांड में भी कोई सामने नहीं आया।
इस तरह के आंदोलनों में मौके का फायदा उठाने वाले लोग बदनाम कर देते हैं। उस आंदोलन, जाति, धर्म, घटना स्थल और कई परिवारों को। इन घटनाओं में सिर्फ महिलाओं की ही नहीं बल्कि आंदोलन, जाति, धर्म, घटना स्थल, कई परिवारों की भी अस्मिता भंग हो जाती है। और ये कभी नहीं कह पाते मी-टू।

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