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आर्टिकल 15: भ्रष्ट सरकारी तंत्र, सामजिक कुव्यवस्था की पोल खोलती फिल्म

– वस्ताविक सिनेमा को देखने के लिए कल्पना का चश्मा उतरना होगा

 

   (शालिनी रस्तोगी)

 दिल्ली। आर्टिकल 15, को रिलीज़ हुए 6 दिन हो चुके हैं| ज़ी स्टूडियो और बनारस मीडिया वर्क्स द्वारा निर्मित अनुभव सिन्हा द्वारा निर्देशित, गौरव सोलंकी और अनुभव सिन्हा द्वारा लिखी गई आयुष्मान खुराना की यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर अच्छा कारोबार कर रही है| हालांकि फिल्म का विरोध भी किया जा रहा है। फिल्म को सवर्ण विरोधी बताते हुए कुछ जातीय और राजनैतिक संगठन फिल्म का विरोध कर रहे हैं। तो प्रश्न उठता है कि क्या यह फिल्म वास्तव में सवर्ण विरोधी है? ऐसा कहने वालों को शायद यह फिल्म एक बार फिर से आँखों पर से राजनैतिक स्वार्थ का चश्मा उतारकर देखनी चाहिए। इस फिल्म का विरोध करना शायद स्वयं से नज़रें न मिला पाने की स्थिति को छिपाने का प्रयास है| पिछले कुछ वर्षों में घटित हुई घटनाओं को आधार बनाते हुए फिल्म की पटकथा लिखी गई है। जिसमें जातिगत भेदभाव से अधिक भ्रष्ट सरकारी तंत्र, सामजिक कुव्यवस्था एवं आर्थिक असमानता और राजनैतिक स्वार्थ के लिए दलितों के हितों को ताक़ पर रख देने वाले नेताओं की पोल खोली गई है। सामजिक समानता के नाम पर लागू किए गए आरक्षण के खेलने वाले नेताओं को बेनक़ाब किया गया है फिर चाहे वह सवर्ण नेता हो या दलित नेता।
‘आर्टिकल 15’ को वास्तविकता की ज़मीन पर बनाया गया है। अभिनय, फिल्मांकन, डायलॉग्स या पटकथा सभी को वास्तविक परिस्थितियों के ताने-बाने पर बुना गया है। फिल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि फिल्म का एक दृश्य भी अवास्तविक नहीं लगता। ईमानदार पुलिस ऑफिसर की सुपर हीरो वाली इमेज को तोड़ आयुष्मान की सहज स्वाभाविक एक्टिंग यह समझाने का प्रयास कर रही है कि इस समाज को सुपर हीरो की नहीं बल्कि अपने कर्त्तव्यों का ईमानदारी से निर्वाह करने वाले पुलिस अधिकारियों व कर्मचारियों की आवश्यकता है। वास्तविकता के धरातल पर भी इन समास्याओं का समाधान संभव है, ज़रूरत जज़्बे की है। फिल्म की गति थोड़ी धीमी अवश्य है पर यह धीमापन आपको उलझन में नहीं डालता बल्कि समस्या की गहराई में डूबने को विवश करता है।बलात्कार की समस्या पर फिल्म बनाने के बावजूद भी फिल्म का दृश्यांकन इस प्रकार किया गया है कि कोई भी दृश्य नग्नता नहीं परोसता। फिल्म के डायलॉग्स सहज और सीधे सादे होने के बावजूद भी समस्या गंभीरता को पूरी ईमानदारी से दर्शकों के सामने रखते हैं। ‘आर्टिकल 15’ को ज़रूर देखी जाने फिल्मों की सूची में शामिल किया जा सकता है। परन्तु हाँ, फिल्म देखने से पहले अपनी आँखों पर से किसी भी पूर्वाग्रह का चश्मा उतारना पड़ेगा।

मुंशी प्रेमचंद की ‘ठकुर का कुआँ’ पढ़ते समय यदि यह लगता है कि आज शायद यह सब नहीं होता होगा तो एक बार इस फिल्म को अवश्य देखें , वस्तुस्थिति कमोवेश आज भी वही है, पर आज सर्वहारा या दलित वर्ग के शोषण में केवल उच्च वर्ग ही नहीं वरन उनकी जाति के समृद्ध लोग भी पूरा सहयोग कर रहे हैं| इस फिल्म को किसी भी दृष्टि से सवर्ण-विरोधी नहीं कहा जा सकता।

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