विकृत मानसिकता का परिणाम है बलात्कार
(सविता ठाकुर)
एक बार फिर बच्चियों के साथ अन्याय और अत्याचार, बलात्कार और उसके बाद हत्या की घटनाओं ने देश के जनमानस को झकजोर दिया है. पहले लोगो को लगा की शायद फांसी की सज़ा के नाम पर ऐसे अपराधियों में खौफ पैदा होगा और पीडितो को न्याय मिल सकेगा. लेकिन यह गलत साबित हुआ और नही रुक रहा बलात्कार और हत्याओ का सिलसिला. आये दिन देश के किसी न किसी हिस्से से रूह को कंपा देने वाली ऐसी ख़बरें आज इंसान नींद हराम कर रही हैं. माँ-बाप हर पल परेशां हैं की किस तरह अपने बच्चो की सुरक्षा सुनिश्चित करें. हर समय अनजाना डर उनके मन-मस्तिष्क में समाया रहता है.
हाल ही में अलीगढ़,भोपाल,उज्जैन,बरेली की घटनाओ ने एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है की आखिर क्या वजह हो सकती है कि मौत की सज़ा का ऐलान भी बलात्कारियो को प्रभावित नहीं कर रहा? क्या कोई सामान्य व्यक्ति ऐसा कर सकता है? नहीं तो फिर कौन हैं ये लोग जिन्हें न कानून की परवाह है न मौत की सज़ा की? क्या यह समस्या कानूनी रूप से नहीं हल हो सकती ? अगर नहीं तो क्या सामाजिक ढांचे और मानसिकता में सुधार की जरूरत है? शायद हाँ, शायद नहीं निश्चित रूप से यही करने की जरूरत है.
सवाल यह भी उठता है कि बलात्कार किये ही क्यों जाते हैं? ज्यादातर प्रकरणों में सामान्यतः यही माना जाता है की तीव्र यौन इच्छा के कारण और स्वयं पर नियन्त्रण नहीं होने के कारण लोग ऐसा करते हैं. यदि ऐसा है तो फिर कोई पिता अपनी पुत्री के साथ क्यों ऐसा करता है ? उसके पास पत्नी है उससे सम्बन्ध बनाये जा सकते हैं. बाज़ार में सेक्स खरीदा जा सकता है.. कुछ लोग कहते हैं कि नशे की हालत में यौन इच्छाए तीव्र होती हैं और उस वक्त इंसान का विवेक काम नहीं करता… लेकिन पिछली कुछ घटनाओ ने यह साबित कर दिया किया कि ऐसा भी नहीं है. कुछ महीने पहले इंदौर के राजवाडें के पास की घटना हैं सडक पर एक मजदूर परिवार सो रहा था एक दूसरे मजदूर युवक ने माँ और पिता को भनक लगे बिना उनकी नन्ही सी बेटी को उनके पास से अगवा किया फिर उसके साथ निहायत अमानवीय और दरिंदगी पूर्ण बलात्कार किया और मरणासन्न हालत में छोड़कर चला गया. यह घटना बताती है की नशे की हालत हो या तीव्र यौन इच्छा , अपराधी का विवेक तो काम कर रहा था, वरना सडक पर सो रही उस बच्ची की जवान माँ जो की एक पूर्ण औरत है के साथ बलात्कार का प्रयास नहीं करते हुए उसके पास सो रही नन्ही बच्ची को उठा कर अपराधी ले गया और उसके साथ शर्मनाक कृत्य कर उसकी निर्मम हत्या कर दी.
इसकी दो वजहें समझ में आती हैं, एक यदि माँ के साथ गलत करने का प्रयास करता तो प्रतिरोध का सामना करना पड़ता. वह शोर मचा सकती थी. बलात्कार करने में सफलता मिलती या नही मिलती, दूसरा यदि सफलता मिल भी जाती तो बाद में पहचान लिए जाने का खतरा हो सकता था. इस लिए कोई खतरा मोल नही लेते हुए उक्त अपराधी ने सबसे कमज़ोर और बोल सकने में असमर्थ बच्ची को उठाना ज्यादा मुनासिब समझा.
लोग कहते हैं कि आज कल लडकियों का पहनावा पुरुषो को आमंत्रण देता हुआ प्रतीत होता है. उससे भी यौन इच्छाए भड़कती हैं, पर बच्चे तो सेक्स ऑब्जेक्ट नही हैं. उनकी भाव भंगिमाए, उनका पहनावा कुछ भी उकसाने वाला नहीं है, फिर क्यों वही ज्यादातर टारगेट किये जाते हैं? वजह साफ़ है कि मानसिक रूप से विकृत व्यक्ति जो संभवतः कमज़ोर, डरपोंक और कायर है वह अपनी इन कमियों के कारण दूसरो की तुलना में हमेशा स्वयं को हीन महसूस करता है. हमारे समाज में मर्दानगी या पुरुषत्व साबित करने का जरिया सेक्स माना जाता है जो खुद एक विकृत परिकल्पना है. शायद यही वजह है कि ऐसे लोग स्वयं को स्वयं की नजरो में मर्द साबित करने के लिए बलात्कार जैसी घटनाओ को अंजाम देते हैं, और इसके लिए भी उन्हें किसी कमजोर लक्ष्य की जरूरत होती है जो आसानी से उनका शिकार बन सके. बच्चे मासूम होते हैं. वे प्यार से बहलाने फुसलाने पर, या चोकलेट और आइसक्रीम जैसी प्रिय चीजों की लालच देकर (जो की बहुत ही सस्ती हैं मार्किट में सेक्स खरीदने के बदले ) आसानी से साथ में ले जाये जा सकते हैं. उन्हें बहुत देर तक तो यह समझ भी नही आता की उनके साथ कुछ गलत किया जा रहा है. उन्हें आसानी से डराया धमकाया जा सकता है ताकि वे किसी को कुछ न बताएं. दरअसल बलात्कार एक सामाजिक-मानसिक मनोविकृति का परिणाम है. जहाँ अपनी ताकत को प्रदर्शित करने के लिए आमतौर पर स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है. चाहे बदला लेने की भावना हो या यौन इच्छा की पूर्ती करने के लिए, दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि बेक़सूर महिलाये और बच्चे निशाना बनाए जा रहे हैं. यह कतई पुरुषत्व नही है बल्कि कापुरुषता की निशानी है.
पुरुष प्रधान समाज में यह माना जाता है की परिवार का मुखिया पुरुष होता है और उस पुरुष को शत्रुता या किसी भी अन्य कारण से नीचा दिखाना हो तो उसके परिवार की स्त्रियों का शील भंग किया जाता रहा है ताकि यह साबित किया जा सके की वह अपने परिवार की सुरक्षा करने में सक्षम नहीं है. अब उससे भी नीचे गिर कर मासूम बच्चो को निशाना बनाया जा रहा है. यह बहुत ही घृणित मानसिकता का प्रतीक है.
पुरुषवादी सोच यह मानती है कि यह दुनिया उसकी है, उसे जब जो जी चाहे करने की आज़ादी है, उसे नियंत्रण करने की कोई आवश्यकता नही है, जब जो दिल करे वह हासिल करना ही उसके पुरुषत्व का प्रतीक है. और कहीं न कहीं यह भी एक वजह है कि क्षणिक सुख के लिए
किसी मासूम की जान और जिंदगी तक दांव पर लगा दी जाती है.
सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना ही इस लिए की जाती है कि किसी भी परिस्थिति में कमज़ोर पर जुल्म न हो बल्कि उसको संरक्षित किया जाये. पहले किसी की भी बेटी हो उसकी अस्मिता की रक्षा करना पूरे गाँव की ज़िम्मेदारी होती थी. आज सबसे ज़्यादा असुरक्षा अपनों से
ही है. बाल यौन शोषण के ज्यादातर प्रकरणों में परिवार का कोई सदस्य, परिवार का कोई मित्र, पडोसी अथवा परिचित ही अपराधी पाया गया है. पहले माँ-बाप जरूरत होने पर पड़ोसियों के भरोसे बच्चो को छोड़कर लम्बे समय तक घर से दूर निश्चिन्त होकर चले जाते थे, लेकिन ऐसी
घटनाओ ने एक दुसरे पर भरोसे की उस कड़ी को भी कमज़ोर कर दिया है. अब कोई किसी पर भरोसा नहीं करता.
आखिर किया क्या जाये? कुछ लोग शासन प्रशासन को दोष देकर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हैं, आप ही बताइये घर के अन्दर, आँगन में खलते हुए या स्कूल में पढ़ते हुए, क्या हर बच्चे के पीछे पुलिस लगाई जा सकती है. क्या हर महिला को इस तरह सुरक्षित किया जा
सकता है. यह सही है कि सख्त सुरक्षा एवं प्रशासन से काफी हद तक अपराध को रोका जा सकता है, या अपराध होने के बाद अपराधी को गिरफ्तार कर न्याय की प्रक्रिया को तेज़ किया जा सकता है, पर लोगो की सोच को कैसे बदला जाये.
बेटी बचाओ का नारा ही काफी नहीं. बेटी सबकी सांझी है, उसको बचाने के लिए प्रत्येक परिवार के प्रत्येक सदस्य की मानसिकता बदलनी होगी. कब तक संस्कृति के नाम पर ऐसे विषयों पर बात करने से बचते रहेंगे.. जिस तरह हम अपने बच्चे को खाने-पीने की आदतों के बारे में,
साफ- सफाई के बारे में, शिक्षा के बारे में और हर विषय पर बहुत कुछ सिखाते हैं उसी प्रकार बाल्यावस्था से स्त्री और पुरुष के स्वस्थ रिश्ते के महत्व को भी समझाने की आवश्यकता है.
सेक्स एजुकेशन भी बहुत जरूरी है, सेक्स भी जीवन का अभिन्न अंग है. किन्तु इसमें भी अनुशासन और मूल्य जरूरी हैं. घर परिवार में भी इस बारे में बात होना चाहिए. शिक्षण संस्थाओ को भी व्यावहारिक शिक्षा के लिए स्वयं को तैयार करना होगा… वरना हमारी खामोशियाँ पीढ़ियों को गुमराह करती रहेंगी और हम मूक दर्शक बनकर ऐसी घटनाओं को किसी समाचार की तरह देखते रहेंगे. लेकिन ये याद रखिये समाज में जब व्यभिचार बढ़ जाता है तो उसकी आंच हमारे घर तक पहुँचने में भी देर नही लगेगी.अपने आस पास रहने वाले ऐसे संदिग्ध व्यक्तियों के प्रति सतर्क रहें . पुरुषत्व और मर्दानगी को नये रूप से परिभाषित करने की आश्यकता है. पुरुषार्थ कमजोर की रक्षा करने में हैं, उसको सहारा देने में है, स्त्रियों को सम्मान देकर उनका दिल जीता जाए न कि बलपूर्वक उनका शरीर जीतने का प्रयास किया जाए. सेक्स प्रेम का प्रतीक होना चाहिए प्रतिशोध का नही. प्रतिशोध के लिए स्त्रियों और बच्चो का इस्तेमाल करना कायरता है, बच्चे सेक्स ऑब्जेक्ट नही हैं, उनके साथ गलत करना घृणित अपराध है… ये सब बाते बचपन से परिवार में ही सिखाई जानी चाहिए. बलात किसी कमज़ोर के साथ अपनी कामवासना की पूर्ती करना पुरुषत्व नही है.
सेक्स वर्क को भी कानूनी मान्यता देने की आवश्यकता है. आज लोगो के सेक्स व्यवहार में जिस तरह का बदलाव आया है उसे स्वीकार करने की जरूरत है. अब सामजिक वर्जनाएं टूट रही हैं… प्रतिदिन सेक्स में नयापन खोजने की चाह में जहाँ विवाहेत्तर सम्बन्ध बढें हैं वहीं शायद बच्चो और किशोरों के साथ अत्याचार भी उसी का परिणाम है. बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम इक्कीसवी सदी में भी इन विषयों पर बात करने के लिए तैयार नही हैं. संस्कृति के नाम पर कब तक ऐसी असांस्कृतिक परम्पराओ और रूढियो को ढोते रहेंगे. यह सही समय है बदलाव के लिए खुद को बदलने का.
(लेखिका एमपी एड्स नियत्रंण समिति में सयुक्त निदेशक हैं।)