क्या संविधान की मूल भावना के खिलाफ है सवर्ण आरक्षण का प्रस्ताव? ये हैं तीन प्रमुख सवाल
केंद्रीय कैबिनेट ने सवर्ण जातियों के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी का आरक्षण देने के प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. यह प्रस्ताव मौजूदा समय में निर्धारित 50 फीसदी आरक्षण के अलावा होगा यानी इसे सामान्य सीटों के भीतर ही दिया जाएगा. लेकिन सरकार के इस कदम पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं. इस प्रस्ताव को संविधान की मूल भावना के खिलाफ माना जा रहा है. इस प्रस्ताव पर मुख्य रूप से तीन तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं.
1. सवर्ण प्रतिनिधित्व का सवाल
असल में संविधान में आरक्षण का जो प्रावधान किया गया है, वह उन जातियों और वर्गों के लिए किया गया जो सामाजिक रूप से पिछड़ी हैं और जिनका सरकारी नौकरियों, राजनीति, शिक्षा जैसी प्रमुख जगहों पर समुचित प्रतिनिधित्व नहीं है. इस आधार पर देखें तो दलित-पिछड़े वर्गों के मुकाबले सवर्ण आरक्षण तार्किक नहीं ठहरता. इसकी वजह यह है कि इन सभी जगहों पर सवर्णों का उचित प्रतिनिधित्व दिखता है.
2. सवर्ण समुदाय का कोई सर्वे नहीं
सवर्ण आरक्षण के रास्ते में एक दूसरी सबसे बड़ी अड़चन यह है कि देश में सवर्णों के सामाजिक-आर्थिक स्तर या उनकी संख्या को लेकर अभी तक कोई सर्वे नहीं कराया गया है. जातिगत जनगणना का काम शुरू तो हुआ था, लेकिन उसे बीच में ही बंद कर दिया गया. इसलिए आखिर सवर्णों को आरक्षण देने का रास्ता और तरीका क्या होगा? आर्थिक पिछड़ेपन को कैसे तय किया जाएगा? इसे लेकर अनुत्तरित सवाल खड़े हैं.
3. जाति या वर्ग के आधार पर मिलता है आरक्षण, आर्थिक आधार पर नहीं
संविधान में आरक्षण देने के पीछे सोच यह है कि उन तबकों को समाज की मुख्य धारा में लाया जाए तो सामाजिक रूप से उपेक्षा या पिछड़ेपन का शिकार हैं. सवर्ण समुदाय इस क्राइटेरिया में नहीं आता. आरक्षण देने का अधिकार जाति या वर्ग को इसलिए बनाया गया क्योंकि देश में कई जातियों-वर्गों के लोग सामाजिक रूप से भेदभाव, उपेक्षा का शिकार रहे हैं. इन जातियों को मुख्य धारा में लाने के लिए आरक्षण दिया गया. आरक्षण असल में गरीबी दूर करने का औजार नहीं, बल्कि सामाजिक भेदभाव दूर करने का साधन है. इसलिए यह समझ में आने वाली बात नहीं लग रही कि संविधान की मूल भावना के खिलाफ जाकर सरकार आखिर आर्थिक रूप से आरक्षण कैसे देगी.