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राजा’ के घर ‘महाराजा’, ये रिश्ता क्या कहलाता है…

भोपाल। 15 साल बाद ऐसा मौका आया है जब सिंधिया परिवार का कोई सदस्य दिग्गी राजा के घर गया हो। मध्यप्रदेश की राजनीति को समझने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि ‘राजा’ यानी दिग्विजय सिंह के घर ‘महाराजा’ यानी ज्योतिरादित्य सिंधिया का पहुंचना कोई साधारण घटना नहीं है। क्योंकि एक ही पार्टी में होने के बावजूद दोनों परिवारों की आपसी प्रतिस्पर्धा किसी से छिपी नहीं है।

फिर क्या कारण हैं कि एक-दूसरे के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी ये परिवार नज़दीक आते दिख रहे हैं। कहा जाता है कि राजनीति में वक्त से बड़ा कोई नहीं होता। वक्त बदलने पर कट्टर सियासी दुश्मन भी करीब आ जाते हैं और वक्त जब करवट लेता है तो करीबी दोस्त भी दुश्मन बन जाते हैं। इन दोनों परिवारों के करीब आने में भी वक्त की बड़ी भूमिका है।

माधवराव सिंधिया के सीएम न बन पाने में दिग्विजय सिंह की थी भूमिका
एक वक्त था जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के पिता माधवराव सिंधिया को सूबे की सत्ता मिलने में सबसे बड़ा रोड़ा अर्जुन सिंह और दिग्विजय सिंह का गुट ही बना था। वो भी एक बार नहीं, दो-दो बार दिग्गी राजा ने सिंधिया परिवार के पास आती हुई कुर्सी को उनसे दूर ढकेल दिया था। वो भी तब जबकि राजीव गांधी खुद माधवराव सिंधिया को मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनते देखना चाहते थे।

सार्वजनिक मंच पर बोले थे दिग्विजय- अपनी ऊर्जा हमसे लड़ने में नहीं बीजेपी लड़ने में खर्च करें
विमान हादसे में माधवराव सिंधिया की असामयिक मौत के बाद तो दिग्गी राजा ने सूबे में कांग्रेस की राजनीति से सिंधिया परिवार को काफी दूर कर दिया था। यहां तक कि सार्वजनिक मंच पर दिग्विजय सिंह ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम लिये बिना ये बोलते हुए भी सुने गए थे कि युवाओं को अपनी ऊर्जा हमसे लड़ने में नहीं भाजपा से लड़ने में खर्च करनी चाहिए।

लेकिन, अब जब परिस्थितियां उलट हैं और ज्योतिरादित्य सिंधिया सूबे की राजनीति में दिग्विजय सिंह से ज्यादा ताकतवर हैं तो ये बदलाव अवश्यंभावी है। दिग्गी राजा अपनी राजनीतिक पारी तो खेल चुके हैं। अब बारी है उनके बेटे जयवर्धन सिंह और पत्नी अमृता की। जयवर्धन सिंह राजनीति में भले ही लंबे समय से हों, लेकिन उनका कद ज्योतिरादित्य सिंधिया के मुकाबले बहुत कमजोर है। फिर अपने पिता दिग्विजय सिंह जैसा मैनेजमेंट सीखने में भी अभी उन्हें वक्त लगेगा।

एक-दूसरे का खेल बिगाड़ने में दोनों सक्षम
वहीं दूसरी ओर ज्योतिरादित्य सिंधिया भले ही प्रदेश की राजनीति में मजबूत होते नज़र आ रहे हों। उनकी राहुल गांधी से नजदीकी और युवाओं में आकर्षण भले ही उन्हें विधानसभा चुनाव में जीतने पर मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार बना रहा हो, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इन सारी खासियतों के बाद भी वे मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नहीं बन सके। कहा जाता है कि उनके अध्यक्ष न बन पाने में दिग्विजय सिंह का भी हाथ रहा है।

यानी दोनों परिवार इतने मजबूत जरूर हैं कि एक-दूसरे का खेल जरूर बिगाड़ सकते हैं। जहां सिंधिया, राहुल गांधी से अपनी नजदीकी का फायदा जयवर्धन को पीछे ढकेलने में कर सकते हैं। तो वहीं दिग्विजय सिंह अपनी जोड़-तोड़ की राजनीति से सीएम की कुर्सी को सिंधिया से दूर कर सकते हैं। वहीं अपने बेटे को मध्यप्रदेश में युवा कांग्रेस की कमान दिलाने की कोशिशों में लगे दिग्विजय का खेल ज्योतिरादित्य सिंधिया बिगाड़ सकते हैं।

वक्त ला रहा है दोनों परिवारों को साथ
ऐसे में इसे वक्त की मांग ही कहा जा सकता है कि ये दोनों परिवार अपनी दशकों पुरानी प्रतिस्पर्धा को दरकिनार कर एक-दूसरे के नजदीक आने की कवायद में लगे हैं। क्योंकि दोनों परिवारों के साथ ही प्रदेश में कांग्रेस के हित भी तभी सध सकते हैं जब ये दोनों परिवार एक-दूसरे से लड़ने की बजाय एकजुट होकर बीजेपी से लड़ें। इसके अलावा वर्चस्व का संकट भी प्रदेश के कांग्रेस नेताओं को नजदीक लाने का एक कारण है। क्योंकि ऐसा पहली बार है जब कांग्रेस सूबे के साथ-साथ केंद्र की सत्ता से भी बाहर है। जिसके चलते प्रदेश के बड़े कांग्रेसी नेताओं को वो राजनीतिक तवज्जो नहीं मिल पा रही जिसकी उन्हें आदत पड़ चुकी है।

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