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जब भारत में लाल फूलों से भेजा जाता था प्रणय निवेदन

वैलेंटाइन का विरोध करने वाले तर्क देते हैं कि भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है. प्यार करना, लड़के और लड़कियों का खुलेआम मिलना भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है. हकीकत ये है कि प्राचीन भारत की परंपराएं प्यार और शादी के मामले में बहुत आगे की रही हैं. कालीदास के एक नाटक में स्पष्ट उल्लेख है कि कैसे एक प्रेमिका बसंत के दौरान लाल रंग के फूल के जरिए प्रेमी के पास प्रणय निवेदन भेजती है. अथर्ववेद तो और आगे की बात करता है. वो कहता है कि प्राचीन काल में अभिभावक सहर्ष अनुमति देते थे कि लड़की अपने प्रेम का चयन खुद करे.

यूरोप में वैलेंटाइन 14 फरवरी को होता है. ठीक इसी दौरान हमारे देश में बसंत ऋतु आई हुई होती है. जिसे मधुमास या कामोद्दीपन ऋतु भी कहते हैं. इस मौसम में हमारे यहां हमेशा हवा में प्रणय और रोमांस के गुलाल घुलते रहे हैं. बसंत को सीधे सीधे प्रेम से जोड़ा जाता रहा है.

कालीदास का नाटक

माना जाता है कि कालीदास ईसापूर्व 150 वर्ष से 600 वर्षों के बीच हुए. कालिदास ने द्वितीय शुंग शासक अग्निमित्र को नायक बनाकर मालविकाग्निमित्रम् नाटक लिखा. अग्निमित्र ने 170 ईसापूर्व में शासन किया था. इस नाटक में उन्होंने उल्लेख किया कि किस तरह रानी इरावती बसंत के आने पर राजा अग्निमित्रा के पास लाल फूल के जरिए प्रेम निवेदन भेजती है.

बसंत में होते प्रेम प्रसंग में डूबे नाटकों का प्रदर्शन

कालीदास के दौर में वसंत के आगमन पर रोमांस की भावनाएं पंख लगाकर उड़ने लगती थीं. प्रेम प्रसंग में डूबे तमाम नाटकों के प्रदर्शन के लिए ये आदर्श समय था. इसी समय स्त्रियां अपने पतियों के साथ झूला झूलती थीं. तन-मन में बहारें उड़ने लगती थीं. शायद उसी वजह से इसे मदनोत्सव भी कहा गया. इसी ऋतु में कामदेव और रति की पूजा का रिवाज है.

लड़कियों को अधिकार था प्रेम का चयन करने का

हिंदू ग्रंथ ये भी कहते हैं कि प्राचीन भारत में लड़कियों को खुद अपने पतियों को चुनने का अधिकार था. वो अपने हिसाब से एक दूसरे से मिलते थे. सहमति से साथ रहने पर भी राजी हो जाते थे. यानि अगर एक युवा जोड़ा एक दूसरे को पसंद करते थे तो एक दूसरे से जुड़ जाते थे. यहां तक कि उन्हें अपने विवाह के लिए अभिभावकों की रजामंदी की जरूरत भी नहीं होती थी. वैदिक किताबों के अनुसार ऋग वैदिक काल में ये विवाह का सबसे शुरुआती और सामान्य तरीका होता था. लिव इन रिलेशनशिप जैसी परंपरा भी थी.

प्रेम संबंधों के लिए उत्साहित करते थे पेरेंट्स

अथर्ववेद का एक अंश कहता है, अभिभावक आमतौर पर लड़की को छूट देते थे कि वो अपने प्यार का चयन खुद करे. सीधे तौर पर वो उसे प्रेम सबंधों के लिए उत्साहित करते थे. जब मां को लगता था कि बेटी युवा हो चुकी है और अपने लिए पति चुनने लायक हो चुकी है तो वो खुशी-खुशी उसे ये करने देती थी. इसमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था. अगर कोई धार्मिक परंपरा के बगैर होने वाले गंधर्व विवाह को करता था तो उसे सबसे बेहतर विवाह मानते थे

लिव इन रिलेशनशिप भी था

अगर लड़का और लड़की एक दूसरे पसंद कर लेते थे तो एक तय के लिए साथ रहते थे. फिर समाज उनकी शादी के बारे में सोचता था. देश में आज भी छत्तीसगढ़ से लेकर उत्तर पूर्व और कई जनजातीय समाज में इस तरह के तरीके चल रहे हैं.

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